Saturday, August 31, 2013

महाज्ञानी मार्क्सवादियों से महामूर्ख दुसाध क्षमा मांगता है किन्तु ... एच एल दुसाध

महाज्ञानी मार्क्सवादियों से महामूर्ख दुसाध क्षमा मांगता है किन्तु ...

                                             एच एल दुसाध

प्यारे मार्क्सवादियों ,जिस तरह मेरे कल के पोस्ट से आपकी  भावनाएं आहत हुई हैं,उसके लिए खेद प्रकट करता हूँ.बहरहाल अगर आपने मेरे उस पोस्ट की पृष्ठ भूमि समझने का प्रयास किया होता,शायद इतना आहत नहीं होते.वैसे तो मैं क्षमा याचना कर ही लिया हूँ ,पर चाहूँगा कि आप उसकी पृष्ठभूमि जान लें.२८ अगस्त की रात १०.३२ पर नीलाक्षी सिंह ने एक मैटर पोस्ट किया था जिसमें  लिखा था –'ब्राह्मण नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टियां मजदूरी बढाने के लिए तो आन्दोलन करती हैं लेकिन बहुजनों को प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने वाले आरक्षण को ठीक से लागू किये जाने के लिए कभी लड़ती हुई देखी गईं हैं क्या?वह कहते हैं आरक्षण से बहुजनों का भला नहीं होगा,तो क्या बहुजनों का भला मजदूरी से होगा जिसके लिए वह आन्दोलन करते हैं.तब तो आपको मानना पड़ेगा कि ब्राह्मणों का यह सारा खेल बहुजनों को हमेशा मजदूर बनाये रखने के लिए है.लड़ते रहिये दो-चार सौ रूपये की मजदूरी के लिए'.

नीलाक्षी जी के उस पोस्ट पर आरक्षण के प्रति पूना पैक्ट के ज़माने से ही शत्रुतापूर्ण मनोभाव पोषण  करने वाले आप मार्क्सवादियों में कईयों ने गहरा व्यंग्यात्मक प्रहार किया था.किन्तु एक अन्य व्यक्ति ने ,जो अवश्य ही गैर-मार्क्सवादी रहा होगा,२९ अगस्त की सुबह ८.०० बजे  उस पर कमेन्ट करते हुए लिखा था-दलितों का भला सिर्फ सत्ता पर,उद्योग –धधों पर,पूंजी पर,सारे महत्वपूर्ण पदों और पुरस्कारों पर,मीडिया समेत और सारे संसाधनों पर कब्ज़ा करके ही होगा.इसे ही अपना लक्ष्य बनायें.'नीलाक्षी जी के उपरोक्त पोस्ट पर मैं भी अपनी राय देने से खुद को नहीं रोक पाया और आरक्षण के प्रति आपकी गहरी अरुचि के कारणों  की तफ्तीश करते हुए २९ अगस्त की सुबह ९.१९ पर यह लिख डाला –'नीलाक्षी जी मार्क्सवादियों की समस्या वैचारिक है.सच्ची बात तो यह है कि जिस मार्क्स को उनके भक्त गैर-बराबरी के खिलाफ वैज्ञानिक सूत्र देने का दावा करते हैं,उस मार्क्स को यह पता ही नहीं था कि शक्ति के स्रोतों (अथिक-राजनीतिक-आर्थिक) का लोगों के विभिन्न तबकों के मध्य असमान बटवारे के कारण ही मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या (आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी) की उत्पत्ति होती रही है.अगर मार्क्स को यह बेसिक जानकारी होती तो वह लोगों के विभिन्न तबकों को शाक्ति के स्रोतों में प्रतिनिधित्व सुलभ कराने का सूत्र रचता.आरक्षण बेसिकली शक्ति के स्रोतों से दूर धकेले गए तबकों के प्रतिनिधित्व/भागीदारी का सिद्धांत है.समतामूलक समाज निर्माण के लिए शक्ति के प्रत्येक क्षेत्र में विभिन्न तबकों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होना चाहिए.पर,चूँकि भारत का प्रभुवर्ग समग्र वर्ग की चेतना से कंगाल रहा है और मार्क्सवादी नेतृत्व प्रभुवर्ग से है इसलिए वह अधिक से अधिक मजदूरी बढाने ,जीडीपी में १५%योगदान करनेवाली खेती इत्यादि में ही भागीदारी की लड़ाई लड़ सकता है.उसके लिए चाह कर भी सप्लाई डीलरशिप,ठेकों,फिल्म-टीवी,मिलिट्री,न्यायपालिका ,पौरोहित्य इत्यादि में सर्वस्वहाराओं के प्रतिनिधित्व की लड़ाई लड़ना मुमकिन नहीं है.हमें इसके लिए गुस्सा करने की बजाय मार्क्सवादियों पर करुणा करनी चाहिए.'

उपरोक्त कमेन्ट के कुछ ही घंटे बाद एक और यह कमेन्ट भी लिखा –'मित्रों आप जो फेसबुक पर अपना कीमती समय दे रहे हैं ,अगर उसके पीछे रत्ती भर भी सामाजिक बदलाव का लक्ष्य है तो आपको बहुजन शत्रु मार्क्सवादियों से यह जानना चाहिए कि उनकी नज़रों में मानव जाति  की सबसे बड़ी समस्या क्या है तथा उसकी उत्पत्ति कैसे होती ही?गौतम बुद्ध ने कहा है कि कोई समस्या है तो उसका कारण है.मेरा मानना है कि न तो मार्क्स और न ही उनके भारतीय अनुसरणकारियों को मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या की कोई स्पष्ट धारणा रही .अगर रही तो मानव जाति  की सबसे बड़ी समस्या की उत्पत्ति का कारण भारतीय मार्क्सवादी बताएं...मैं जानता हूँ बौद्धिक रूप से कायर मार्क्सवादी मेरे सवालों से टकराने के बजाय भाग जायेंगे.'

कामरेडों आपकी खामोशी तोड़ने के लिए ही मैंने अपने आखरी कमेन्ट कमेन्ट को घुमा-फिराकर कल फिर पोस्ट कर दिया जिया,जिसपर आपने ५२ किताबों के लेखक दुसाध को धूर्त बकलोल,मूर्ख इत्यादि खिताब से नवाज कर बदमाश,बेशरम कहने का बदला ले लिया.मुझे इसके लिए अफ़सोस नहीं है.अफ़सोस यही है कि शीबा असलम,अशोक कुमार पाण्डे और मणिन्द्र ठाकुर सर जैसे करीबी लोगों की भावनाएं आहत हुईं.इसलिए ही मैंने क्षमा चाहा  है.हाँ मैं भारतीय मार्क्सवादियों से जबरदस्त नफरत करता हूँ,उसकी स्वीकारोक्ति के लिए क्षमा नहीं मांगूंगा.मुझे मूर्ख ,बकलोल कहनेवाले लोग हिंदी पट्टी के हैं और मैं मार्क्सवादियों के गढ़ प.बंगाल में ३३ साल रहने के कारण उनके चाल-चरित्र को आपसे बेहतर जानता हूँ.कला और संस्कृति की पोषिका बंग-भूमि के प्रति मेरे मन में अपार श्रद्धा रही.ऐसे राज्य को १९७७ में सत्ता में आने के बाद जिस तरह मार्क्सवादियों ने करुणतर स्थिति में पहुँचाया उससे उनके प्रति नफरत की जो भावना पैदा हुई ,उसमें कभी कमी नहीं आई.

बहरहाल आपलोगों ने गाली का बदला गाली देकर तो चुका लिया पर मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि मुझे भ्रांत नहीं प्रमाणित कर पाये और मेरे सवालों का जवाब देने से भाग ही गए.इस तरह आरक्षण के प्रति पूना पैक्ट के ज़माने से जारी अरुचि का कारण ही आप लोग गोल कर गए.खैर औरों से तो नहीं किन्तु शीबा फहमी,विद्वान् मित्र अशोक पांडे और मणिन्द्र सर से तो प्रत्याशा रहेगी ही कि वे विषयांतर करने की बजाय निम्न सवालों का जवाब दें .

1 -क्या आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी मानव जाति की सबसे समस्या नहीं है?

2-क्या सदियों से ही पूरी दुनिया में मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या की उत्पत्ति शक्ति के स्रोतों का विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बटवारे से के कारण नहीं होती रही है?

3-अगर समस्या की उत्पत्ति का कारण यह है तो क्या शक्ति के समस्त स्रोतों का विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य न्यायोचित बंटवारा ही इससे उबरने का सर्वोत्तम उपाय नहीं है?

4-अगर शक्ति के स्रोतों का विभिन्न तबकों के मध्य न्यायोचित बंटवारा ही आर्थिक और सामजिक गैर-बराबरी के खात्मे का सर्वोत्तम उपाय है तो क्या बंटवारे के लिए आरक्षण से भी बेहतर कोई उपाय है?

5-क्या आरक्षण की इस प्रभावकारिता को ध्यान में रखकर ही अमेरिका,इंग्लैण्ड,आस्ट्रेलिया,फ़्रांस,दक्षिण अफ्रीका इत्यादि में महिलाओं ,अश्वेतों इत्यादि को शक्ति के स्रोतों में आरक्षण देकर सशक्त नहीं बनाया गया?

6-क्या सदियों से शक्ति के स्रोतों से वंचित किये गए दलित-आदिवासी,पिछड़े और महिलाओं को सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों के साथ मिलिट्री,पुलिस,न्यायपालिका,सप्लाई ,डीलरशिप,ठेकों,फिल्म-टीवी,पौरोहित्य इत्यादि में आरक्षण देकर शक्तिशाली नहीं बनाया जा सकता?

7- आज भारत जैसी आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी विश्व में कही नहीं है और ऐसा होने का एकमेव कारण है 15 % परम्परागत शक्तिशाली तबके का शक्ति के स्रोतों पर 80-85%प्रतिशत कब्ज़ा.आज के ज़माने में जबकि समाजवाद पूरी तरह यूटोपिया बनकर रह गया क्या भारत के चार मुख्य सामाजिक समूहों-सवर्ण,ओबीसी,एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों-के संख्यानुपात में शक्ति के स्रोतों का बंटवारा करके देश से आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी का विलोप नहीं किया जा सकता?

8-आरक्षण के द्वारा भी डेमोक्रेटिक व्यवस्था में समतामूलक समाज निर्माण किया जा सकता है,इसका उज्जवल दृष्टांत दक्षिण अफ्रीका है.वहा मंडेला की पार्टी ने सत्ता में आने के बाद  शक्ति के स्रोतों को विभन्न तबकों के संख्यानुपात में अरक्षित करने की नीति बनाया.इससे जिन 8-9%गोरों का शक्ति  के स्रोतों पर 80-90% कब्ज़ा रहा,वे 9-10% पर सिमटने के लिए बाध्य हुए.अगर भारत में ऐसा कर दिया जाय तो हजारों साल से शक्ति के स्रोतों पर 80-85% ज़माने वाला सामाजिक समूह १५%पर सिमटने के लिए बाध्य होगा.इससे उसके हिस्से की सरप्लस शक्ति शेष तबकों में बंटनी शुरू होगा .फलतः समतामूलक समाज की प्रक्रिया शुरू हो सकती है.आप बतायें इस कार्य में अम्बेडकरवादी हथियार आरक्षण ज्यादा प्रभावकारी होगा कि पूरी तरह यूटोपिया बन चुका मार्क्सवादी समाजवाद?

उम्मीद तो है कि कायर मार्क्सवादी उपरोक्त सवालों से टकराने के बजाय भाग ही जायेंगे .पर बंधुवर अशोक पांडे,मोहतरमा शीबा असलम और मणिन्द्र सर से पुनः अनुरोध कर रहा हूँ कि आप कायरों की श्रेणी से खुद को अलग करते हुए उपरोक्त सवालों से टकराएँ.खासतौर से मेरे जिले के अशोक पांडे, जिन्होंने दुसाध को भलीभांति जानते हुए भी बकलोल करार दे दिया,को मेरे सवालों से टकराना ही पड़ेगा.पण्डे जी अगर मेरे उपरोक्त विचारों को नहीं काट पाते हैं तो मुझे दिया हुआ खिताब उन्हें खुद ग्रहण करना पड़ेगा.मेरी शुभकामना है की पांडेजी धूर्त बकलोल तथा बाकी मार्क्सवादी कायर बनने से बच जाएँ.

दिनांक:31 अगस्त,2013                                                       

   

            

   

                 


 


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