बकौल गिरदा, पानी से धारदार कोई औजार नहीं होता!
पर्यावरण संरक्षण के बिना विकास विनाश का पर्याय है,
पलाश विश्वास
अतिवृष्टि से उत्तर भारत में अब तक 48 लोगों के मारे जाने की खबर है। उत्तराखण्ड और हिमाचल की बारिश दिल्ली में भी मचायेगी कहर, यमुना में आएगी बाढ़! राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पिछले तीन दिनों से मानसून-पूर्व बारिश हो ही रही थी, इसी बीच रविवार को मॉनसून भी पहुँच गया। मॉनसून यहाँ निर्धारित समय से दो सप्ताह पहले पहुँचा है।
उत्तराखण्ड में इस विपर्यय के समय, जब 84 साल की बारिश का रिकॉर्ड टूटने से बगल में हिमाचल में भी कहर बरपा हुआ है, अपने प्रिय कवि दिवंगत गिरदा की खूब याद आती है। नैनीताल समाचार के दफ्तर, गिरदा के दड़बे और अपने इतिहासकार प्रोफेसर शेखर पाठक के घर में बैठकर 1978 और 1979 में हम लोगों ने हिमालय की सेहत पर बहुत सारी रपटें लिखी हैं। 1978 में कपिलेश भोज साल भर के लिये अल्मोड़ा चला गया था, 79 में वह भी लौट आया। अल्मोड़ा से शमशेर बिष्ट, जागेश्वर से षष्ठीदत्त जोशी, मनान से चंद्र शेखर भट्ट और द्वाराहाट से विपिन त्रिपाठी आ जाया करते थे। निर्मल जोशी तब खूब एक्टिव था। प्रदीप टमटा युवा तुर्क था और तभी राजनीति में आ गये थे राजा बहुगुणाऔर नारायण सिंह जंत्वाल। कभी कभार सुन्दर लाल बहुगुणा, चण्डी प्रसाद भट्ट और कुँवर प्रसून आ जाते थे। बाकी राजीव लोचन साह, हरीश पंत, पवन राकेश, भगत दाज्यू तो थे ही। पंत नगर के देवेन्द्र मेवाड़ी, दिल्ली के आनंद स्वरूप वर्मा और बरेली के कवि वीरेन डंगवाल नैनीताल समाचार की लम्बी चौड़ी टीम थी। ब्याह के बाद डॉ. उमा भट्ट भी आ गयीं थीं। पहाड़ की योजना बन रही थी। जिसमें रामचंद्र गुहा जैसे लोग भी थे। हमारे डीएसबी कॉलेज के अँग्रेजी के अध्यापक फेडरिक्स अलग से भीमताल में धूनि जमाये हुये थे। इसके अलावा पूरी की पूरी युगमंच और नैनीताल के रंग मंच के तमाम रंगकर्मियों की टीम थी, जिसमें जहूर आलम से लेकर राजीव कुमार तक लोग निरन्तर हिमालय की सेहत की पड़ताल कर रहे थे।
उस वक्त शेखर के घर में लम्बी बहस के बाद गिरदा ने नैनीताल समाचार की मुख्य रपट का शीर्षक दिया था, पानी से कोई धारदार औजार नहीं होता।
`जनसत्ता' निकलने से पहले कविता नुमा शीर्षक लगाने में गिरदा की रंगबाजी के आगे बाकी सारे लोग हथियार डाल देते थे। तब हमारे बीच पवन राकेश के अलावा कोई घोषित पत्रकार नहीं था। हम लोग आन्दोलन के हिसाब से अपनी भाषा गढ़ रहे थे। बुलेटिन के जरिये, पर्चा निकालकर जैसे भी हो, आन्दोलन जारी रखना हमारा लक्ष्य था।
उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी में तब गढ़वाल और कुमायूँ के सारे कालेजों के छात्र जुड़ चुके थे। देहरादून से आकर नैनीताल समाचार में डेरा डालने वालों में धीरेंद्र अस्थाना भी थे। हम लोग तब मौसम की परवाह किये बिना एक जुनून में जी रहे थे। कहीं भी कभी भी दौड़ पड़ने को तत्पर। किसी से भी कहीं भी बहस को तैयार।
रात रात भर कड़ाके की सर्दी में गिरदा के कमरे में स्त्री पुरुष सब एक लिहाफ में। तब प्रिम बच्चा था। बाद में शादी के बाद हमारे साथ जब नैनीताल में गिरदा के दड़बे में पहुँची सविता, तो उसे भी उसी ऐतिहासिक लिहाफ की शरण लेनी पड़ी। उस लिहाफ की आड़ में हम हिमालय के खिलाफ हर साजिश के लिये मोर्चा बन्द थे। न जाने वह लिहाफ अब कहाँ होगा! शायद प्रिम को मालूम होगा।
अशोक जलपान गृह मल्लीताल में हमारा कॉफी हाउस था, जहाँ मोहन उप्रेती से लेकर बाबा कारंत, आलोक नाथ और बृज मोहन साह से लेकर नीना गुप्ता तक की उपस्थिति दर्ज हो जाती थी। सीआरएसटी कॉलेज हमारे लिये रिहर्सल का खुला मंच था तो तल्ली डाट, जंतर मंतर। तब हम लोग सही मायने में हिमालय को जी रहे थे।
खास बात यह थी कि कोई भी कहीं भी काम कर रहा हो तो हम लोग हिमालय और पर्यावरण के क्षेत्र में ही सोचते थे। चाहे वे कुमायूँ विश्वविद्यालय के पहले कुलपति डीडी पंत हो या छात्र नेता महेन्द्र सिंह पाल, काशी सिंह ऐरी, भागीरथ लाल या भूगर्भ शास्त्री खड़गसिंह वाल्दिया, साहित्यकार बटरोही या डीएसबी कॉलेज के तमाम अध्यापक। डीएसबी कॉलेज में सारे विबाग गड्डमड्ड हो गये थे। हम अँग्रेजी के छात्र थे, लेकिन वनस्पति विज्ञान, गणित, भौतिकी और रसायन विभागों में हमारे अड्डे चलते थे। कला संकाय तो एकाकार था ही। वह नैनीताल पर्यटन केन्द्र के बदले हमारे लिये हिमालय बचाओ देश और दुनिया बचाओ आन्दोलन का केन्द्र बन गया था। बरसात हो या हिमपात, कोई व्यवधान, दिन हो या रात कोई समय हमारी सक्रियता में बाधक न था। आज चन्द्र शेखर करगेतीऔर प्रयाग पांडेय की सक्रियता में उस नैनीताल को खोजता हूँ, जहाँ हर नागरिक उतना ही आन्दोलित था और उतना ही सक्रिय जितना हम। तब चिपको आन्दोलन का उत्कर्ष काल था। नैनीताल क्लब अग्निकांड को लेकर हिंसा और अहिंसा की बहस बहुत तेज थी, लेकिन हम सारे लोग नैनीताल ही नही, कुमाऊँ गढ़वाल और तराई में समान रूप से सक्रिय थे।
पृथक उत्तराखण्ड बनते ही सारा परिदृश्य बदल गया। इसी बीच तमाम जुझारू साथी गिरदा, निरमल, फेडरिक्स, विपिन चचा, षष्ठी दाज्यू, भगत दा हमेशा के लिये अलविदा कह गये। राजनीति ने कुमायूँ और गढ़वाल के बीच वहीं प्राचीन दीवारे बना दीं। हिमालय और मैदानों का चोली दामन का रिश्ता खत्म हो गया। तराई से बहुत दूर हो गया नैनीताल। हालाँकि वर्षों बीते मुझे घर गये, पर अब ठीक ठीक यह याद भी नहीं आता कि आखिरीबार मैं नैनीताल कब गया था। प्रामं के तार टूट गये हैं। न कोई सुर है और न कोई छंद।
हम सभी लोग मानते रहे हैं कि राजनीति अन्ततः अर्थशास्त्र ही होता है। दिवंगत चंद्रेश शास्त्री से यह हमने बखूब सीख लिया था। फेडरिक्स ने सिखाया था कि हर सामाजिक कार्यकर्ता को पर्यावरण कार्यकर्ता भी होना चाहिये और सबसे पहले वही होना चाहिये। प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों की लूटपाट पर टिकी है अर्थव्यवस्था।
औपनिवेशिक काल से यही रघुकुल रीति चली आयी। 1991 से नवउदारवादी कलि युग में खुले अर्थव्यवस्था में यह सत्य अमोघ नियति के रुप में अभव्यक्त होता रहा है बारम्बार। प्रकृति से जुड़े लोगों और समुदायों के नरसंहार के बिना कॉरपोरेट राज का कोई वजूद नहीं है, यह हम भारत के कोने कोने में अब अच्छी तरह अहसास करते हैं। लेकिन बाकी देश को आज भी हम यकीन दिला पाने में नाकाम रहे हैं कि हिमालय भी भारत का हिस्सा है।
सारी नदियों का उत्स जिन ग्लेशियरों में हैं, वहीं बसता है भारत का प्राण। कॉरपोरेट योजनाकारों को यह मालूम है, लेकिन आम जनता इस सच को दिलो-दिमाग में महसूस नहीं करती। पहाड़ और हिमालय, पहाड़ के लोग निरन्तर आपदाओं और विपर्यय के शिकार होते रहेंगे, यही हमारा परखा हुआ इतिहास बोध है, सामाजिक यथार्थ है। हिमालय के अलग अलग हिस्से भी प्राकृतिक रुप से इतने जुदा जुदा हैं, पहुँच से इतने दूर हैं, इतने दुर्गम और इतने बदहाल हैं, कि साझा हिमालयी मँच कभी बन ही नहीं सका। राज्य गठन के ग्यारह साल बाद भी ऊर्जा प्रदेश के 127 गाँव ऊर्जा से वंचित हैं, जिसमें सबसे ज्यादा गाँव नैनीताल के हैं। उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग जिले को छोड़कर कोई भी ऐसा जिला नहीं, जहाँ पूरे गाँवों में बिजली हो। जल संसाधनों के अधिकतम दोहन की नीति पर काम करते हुये सरकार ने निजी तथा सरकारी स्वामित्व वाली कम्पनियों को 12114 मेगावाट क्षमता की परियोजनाएं आवंटित की हैं। ऊर्जा प्रदेश, पर्यटन प्रदेश, शिक्षा प्रदेश और हर्बल प्रदेश। ये सब नाम अलग-अलग सरकारों द्वारा उत्तराखण्ड को दिये गये हैं और इनमें से कोई भी नाम अब तक सार्थक नहीं हो पाया है! गंगा यमुना सहित उत्तर भारत की सभी प्रमुख नदियाँ उत्तराखण्ड में हिमालय से निकलती हैं।
आज जितना विपर्यस्त है उत्तराखण्ड, उतना ही संकट ग्रस्त है हिमाचल, पर चिपके के उत्कर्ष समय में भी हम कश्मीर और पूर्वोत्तर की क्या कहें, हिमाचल और उत्तराखण्ड के बीच भी कोई सेतु नहीं बना सके। पर्यावरण संरक्षण के बिना
विकास विनाश का पर्याय है, इसकी सबूत हिमालय के करवट बदलते ही हर बार मिलता है। अति वृष्टि, बाढ़, भूस्खलन और भूकम्प में मृतकों की संख्या गिनने और लाइव कवरेज से इतर इस दिशा में अभी किसी सोच का निर्माण ही नहीं हुआ। पहाड़ों में जंगल की अँधाधुँध कटान जारी है। दार्जिलिंग के पहाड़ हों या सिक्किम, नगालैंड हो या गारो हिल्स या फिर अपने हिमाचल और उत्तराखण्ड पहाड़ आज सर्वत्र हरियाली से वंचित आदमजाद नंगे हो गये हैं।
भारत में हिमालय के अलावा बाकी हिस्से भी प्राकृतिक आपदा से जूझते रहे हैं। पर बड़े बाँधों के खिलाफ निरन्तर जनान्दोलनों के बावजूद आत्मघाती विकास का सिलसिला जारी है। दण्डकारण्य में वनाधिकार से वंचित आदिवासियों के प्रति बाकी देश के लोगों की कोई सहानुभूति नहीं है। वनाधिकार कानून कहीं नहीं लागू हैं। न उत्तराखण्ड में, न झारखण्ड में और न छत्तीसगढ़ में, जहाँ क्षेत्रीय अस्मिता के आन्दोलनों से नये राज्य का निर्माण हुआ। उत्तराखण्ड अलग राज्य के निर्माण में पर्यावरण चेतना और पर्यावरण चेतना से समृद्ध नारी शक्ति की सबसे बड़ी भूमिका है, लेकिन वहीं पर्यावरण कानून का सबसे ज्यादा उल्लंघन हो रहा है और वही अब ऊर्जा प्रदेश है। न केवल गंगा की अज्ञात पुरातन काल से लेकर अब तक अबाधित जलधारा ही टिहरी बाँध में समा गयी बल्कि सारी नदियाँ छोटी बड़ी परियोजनाओं के मार्फत अवरुद्ध हो गयीं। यह वृष्टिपात तो प्रकृति के रोष की अभिव्यक्ति है और चरम चेतावनी भी है। हम खुद हिमालय से इतना कातिलाना खेल खेल रहे हैं, तो हम किस नैतिकता से चीन को ब्रह्मपुत्र की जलधारा को रोकने के लिये कह सकते हैं। एवरेस्ट तक को हमने पर्यटन स्थल बना दिया है, चारों धामों में अब हनीमून है, मानसरोवर के हँस का वध हो गया। प्रकृति इतने पापों का बोझ कैसे उठा सकती है?
पूर्वोत्तर में नगालैंड, त्रिपुरा, मिजारम, मेघालय जैसे राज्यों में सरकारें पर्यटकों को सुरक्षा की गारंटी दे नहीं सकती तो वहाँ अभी झीलें जीवित हैं, जबकि अपनी नैनी झील मृतप्राय है। दंडकारण्य से लेकर सुंदर वन और नियमागिरि पहाड़ तक पर्यटन नहीं तो कॉरपोरेट राज की दखलंदाजी है। अभयारण्य रिसॉर्ट के जंगल में तब्दील हैं।समुद्र तट सुरक्षा अधिनियम की खुली अवहेलने के साथ जैतापुर से लेकर कुडनकुलम में भी परमाणु संयंत्र लगा दिये गये हैं। पाँचवीं और छठीं अनुसूचियों, संवैधानिक रक्षाकवच के खुले उल्लंघन से आदिवासियों को आखेट जारी है। खनन अधिनियम हो या भूमि अधिग्रहम कानून कॉरपोरेट नीति निर्धारक अपने हितों के मुताबिक परिवर्तन कर रहे हैं। पर्यावरण चेतना के अभाव में प्रकृति से इस खुले बलात्कार के विरुद्द हम कहीं भी कभी भी कोई मोमबत्ती जुलूस निकाल नहीं पाते।
पानी सिर्फ हिमालय में सबसे धारदार औजार नहीं है, सुनामी की चपेट में आये आँध्र और तमिलनाडु के लोगों को इसका अहसास जरूर हुआ होगा। पर बाकी देश की चेतना पर तो पारमाणविक महाशक्ति की धर्मोन्मादी काई जमी हुयी है, आँखों में बाजारु विकास की चकाचौंध है और हम यह समझने में बुरी तरह फेल हो गये कि भारत अमेरिका परमाणु संधिके बाद न सिर्फ तमाम जल स्रोत और संसाधनों पर कॉरपोरेट कब्जा हो गया, बल्कि पानी नामक सबसे धारदार हथियार अब रेडियोएकटिव भी हो गया है, जो सिर्फ हिमालय में नहीं बल्कि बाजारु विकास के अभेद्य किलों नई दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई, अमदाबाद, बेगलूर, चेन्नई, कोयंबटूर में भी कहर बरपा सकता है।
बहरहाल खबरों के मुताबिक उत्तराखण्ड में बारिश से भारी तबाही हुयी है। अब तक 13 लोगों की मौत हुयी है। चार धाम की यात्रा स्थगित कर दी गयी है। केदारनाथ के रामबाड़ा में बादल फटने के बाद से 50 लोग लापता हैं। 13000 लोग चमोली और उत्तरकाशी में फंसे हुये हैं।
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।
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