Saturday, 15 June 2013 11:29 |
विनोद कुमार इस लिहाज से माओइस्ट कोआर्डिनेशन सेंटर अपने मूल सिद्धांतों पर अडिग रहा और उसमें विभाजन न के बराबर हुआ। कुछ कट््टर माओवादियों के अनुसार, नक्सलबाड़ी आंदोलन के काफी पहले से चीन की सशस्त्र क्रांति से प्रेरणा ग्रहण कर और माओत्से तुंग के राजनीतिक दर्शन से लैस होकर वे लोग काम कर रहे हैं। नक्सली संगठन जहां रणनीति के तहत ही सही, संसदवाद को स्वीकार करते हैं और चुनाव भी लड़ते रहे हैं, वहीं माओवादी संसदीय राजनीति का पूरी तरह से निषेध करते हैं और सशस्त्र क्रांति को ही व्यवस्था परिवर्तन का एकमात्र रास्ता मानते हैं। नक्सली संगठन एक रणनीति के तहत हिंसा का रास्ता स्वीकार करते हैं और आतंकवादी तौर-तरीकों से उन्हें परहेज है, जबकि एमसीसी की राजनीति का मूल तत्त्व ही हिंसा और आतंक है। नक्सली संगठन भी हिंसा करते हैं और एक जमाने में 'ऊपर से छह इंच छोटा करने' वाली पार्टी के रूप में उनकी पहचान थी, लेकिन माओवादी गुट जब हत्या करते हैं तो उसे क्रूरतम तरीके से अंजाम देते हैं। आधुनिकतम हथियार रहते हुए भी पहले कथित दुश्मन की पिटाई की जाती है, अंग भंग किया जाता है और फिर गला रेत कर उसकी हत्या की जाती है। उद््देश्य यह कि उस घटना को देख-सुन कर लोग दहशत से भर जाएं। माओवादियों को इस बात की भी फिक्र नहीं रहती कि उनके बम विस्फोट या बारूदी सुरंगों में निर्दोष लोग मारे जा सकते हैं। 2006 में उन लोगों ने छत्तीसगढ़ में बारूदी सुरंग से आदिवासियों से भरे ट्रक को उड़ा दिया था, जिसमें पचास से ज्यादा आदिवासी मारे गए और दर्जनों जीवन भर के लिए अपाहिज हो गए। माओवादी चीन के नेता माओ को अपना आदर्श मानते हैं और वनों से आच्छादित पहाड़ी क्षेत्र को अपनी शरणस्थली बना कर काम करते हैं, ताकि समतल क्षेत्र में अपने दुश्मन पर वार करने के बाद वे वापस अपनी शरणस्थली में छिप सकें और दुश्मन का देर तक गुरिल्ला तरीकों से मुकाबला कर सकें। पिछले तीन दशक में जहां नक्सली संगठन समाप्तप्राय हैं, वहीं अपनी इस विशेष रणनीति की वजह से वे अब तक बचे हुए हैं। सबसे पहले झारखंड के पारसनाथ की पहाड़ी शृंखला को उन्होंने अपनी शरणस्थली बनाया जिसके प्रारंभ में कैमूर की पहाड़ियां हैं और अंतिम छोर पर टुंडी। इसलिए शुरुआती दौर में पलामू और चतरा में अपनी उपस्थिति दर्ज करने के बाद उन्होंने हजारीबाग, गिरिडीह, तोपचांची और टुंडी क्षेत्र में अपना जनाधार मजबूत किया। फिर गिरिडीह और बोकारो जिले के मिलनस्थल की झुमरा पहाड़ी को, जो पुनदाग के जंगलों से मिल कर झालदा, मुरी, रांची, हटिया होते हुए दक्षिण भारत की पहाड़ी शृंखला तक चली जाती है। यानी जो देश का वनक्षेत्र है वही एमसीसी का प्रभाव क्षेत्र। शुरुआती दौर में आंध्र प्रदेश में सक्रिय पीपुल्स वार ग्रुप से कुछ वर्षों तक वर्चस्व के टकराव के बाद दोनों संगठनों में मेल-मिलाप हो चुका है। बाद के दिनों में बिहार में सक्रिय नक्सली संगठन सीपीआइ-एमएल (संतोष राणा गुट) का भी इसमें विलय हो गया। इस मेल-मिलाप के बाद ही बारूदी सुरंग बिछाने में उसने महारत हासिल की है। पिछले तीस वर्षों में झारखंड के अट्ठाईस में से चौबीस जिलों सहित समीपवर्ती ओड़िशा और छत्तीसगढ़ के वनों से आच्छादित इलाकों में इनका विस्तार हो गया है। हमारे देश का जो वनक्षेत्र है वही जनजातीय क्षेत्र भी। इसलिए इनका दावा है कि वे आदिवासियों के रहनुमा हैं। जबकि वस्तुगत स्थिति यह है कि इनके दस शीर्ष कामरेडों में सात आंध्र प्रदेश से आते हैं। इक्के -दुक्के बंगाल और हिंदी पट्टी के हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि एक बड़ी ताकत बन जाने के बाद भी वे कर क्या रहे हैं? क्या इस ताकत का इस्तेमाल सिर्फ आतंकवादी कार्रवाइयों में होगा और आतंक के बलबूते 'लेवी' की वसूली? जिस आंदोलन से भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता में संघर्ष का जज्बा पैदा न हो, व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में व्यापक जन गोलबंदी न हो, उस आंदोलन-संघर्ष का औचित्य क्या है? |
Saturday, June 15, 2013
ऐसे संघर्ष का औचित्य क्या है
ऐसे संघर्ष का औचित्य क्या है
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