माओवादियों से वार्ता की उलझनें
सुदीप चक्रवर्ती, वरिष्ठ पत्रकार
समय गुजरता है, तो चीजें बदलती भी हैं। अब पुष्प कमल दहल का उदाहरण ही लीजिए। किसी जमाने में माओवादी विद्रोही रहे नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री दहल अब यूनाइटेड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के अध्यक्ष हैं। यह एक ऐसी पार्टी है, जो कभी बागियों का संगठन थी, और फिर जिसने लोकतंत्र को अपना लिया। कभी बेपरवाह और निरंकुश राजतंत्र के तहत चलने वाले नेपाल को अब यह पार्टी एक सांविधानिक व्यवस्था देने की कोशिश कर रही है। हालांकि दहल अब भी अपना नाम 'प्रचंड' लिखना ही पसंद करते हैं। यह नाम उन्होंने तब अपनाया था, जब वह बागी के रूप में भूमिगत थे। छत्तीसगढ़ में पिछले दिनों जब माओवादियों ने कांग्रेस के कई बड़े नेताओं की हत्या की, तो उसके तीन दिन बाद प्रचंड ने संयुक्त प्रगतिशील गठजोड़ यानी यूपीए की अध्यक्ष को एक चिट्ठी लिखी। चिट्ठी का एक वाक्य था, 'हम यह मानते हैं कि किसी भी तरह का कोई भी समाधान शांतिपूर्ण तरीके से ही निकाला जाना चाहिए, यही लोकतंत्र की खूबसूरती है।' क्या इसका अर्थ यह है कि भारत में माओवादियों से बातचीत का एक और दौर शुरू होने वाला है? क्या शांति का आगाज होगा? पहली बात तो यह है कि भारत के माओवादी खुद को प्रचंड से अलग कर चुके हैं। यहां तक नेपाल के भी कई कट्टरपंथी माओवादी उनसे दूरी बना चुके हैं। वे प्रचंड को सत्ता का भूखा राजनीतिज्ञ मानते हैं, किसी क्रांति का महान नेता नहीं। उनका आरोप है कि नेपाल में जो बगावत थी, वह उनके लिए सत्ता तक पहुंचने का एक रास्ता भर थी। प्रचंड ने यह स्वीकार करते हुए हथियार छोड़े थे कि नेपाल के सुरक्षा बलों को युद्ध में हरा पाना लगभग असंभव है। दूसरी बात यह है कि भारत की माओवादी बगावत नेपाल से काफी अलग है। नेपाल एक बहुत छोटा और काफी गरीब देश है, वहां रोजगार के अवसर भारत के मुकाबले काफी कम हैं। और इसमें भी कोई शक नहीं कि वहां भ्रष्टाचार भी भारत से कई गुना ज्यादा है। नेपाल की माओवादी बगावत दस साल में ही सौ गुना तक बढ़ गई थी। दूसरी तरफ, भारत में माओवादी बगावत कई दशक से खदबदा रही है। कभी-कभी इसमें तेजी आती है, लेकिन अगर पूरे देश के संदर्भ में देखा जाए, तो इस पर मोटे तौर पर नियंत्रण बना रहता है। नेपाल के मुकाबले भारत में इस बगावत का परिदृश्य काफी जटिल है। भारत में माओवादी लोगों की स्थानीय शिकायतों का फायदा उठाते हैं और स्थानीय स्तर पर रणनीति बनाते हैं। उनकी कुल जमा सोच यह रहती है कि किसी तरह जिले और प्रदेश की सीमा के पार जाकर खुद को सुरक्षा बलों से बचाया जाए। उनसे निपटने और कानून व्यवस्था बहाल करने का काम सांविधानिक रूप से पूरी तरह राज्य सरकार और उसके सुरक्षा बलों के हवाले रहता है। नई दिल्ली कभी-कभी निमंत्रण मिलने पर वहां झांक लेने भर का काम करती है। उनसे निपटने का काम अगर राज्य के हवाले है, तो उनके साथ शांति कायम करने का काम भी राज्य के ही हवाले है। यहां मामला नेपाल की तरह का नहीं है, जहां सभी राजनीतिक दलों और देश की सरकार ने माओवादियों से शांति वार्ता की थी। नेपाल की उस वार्ता का भारत, अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों ने स्वागत भी किया था। वहां बाकायदा संयुक्त राष्ट्र की एक एजेंसी की देखरेख में बागियों के लिए शांति शिविर बनाए गए थे, ताकि वे संविधान सभा का चुनाव लड़ सकें। भारत के मामले में यह सब संभव नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के शब्दों में कहें, तो माओवाद 'भारत की आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती है।' जाहिर है कि इसे खुद भारत को ही सुलझाना है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
लेकिन शांति तो शांति है, इसके लिए हमेशा ही कोशिश होनी चाहिए। ऐसी एक बड़ी कोशिश 2004 के अंत में आंध्र प्रदेश में हुई थी। सरकार ने इसके लिए हैदराबाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) यानी पीपुल्स वॉर ग्रुप और इनके सहयोगियों से बातचीत शुरू की। लेकिन यह बातचीत कुछ ही हफ्तों में टूट गई। कहा जाता है कि दोनों पक्षों ने ऐसी मांगें रखी थीं कि बातचीत का सिरे चढ़ना मुमकिन नहीं था। इसके तुरंत बाद पीपुल्स वॉर ग्रुप ने अपना विलय बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में सक्रिय माओवाद कम्युनिस्ट सेंटर में करके भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का गठन किया। मुझे लगता है कि आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वॉर ग्रुप पर काफी दबाव था, इसी वजह से उसने बातचीत तोड़ी और विलय को स्वीकार कर लिया। इससे एक तो उनका आधार क्षेत्र बढ़ गया और उन्हें राज्य सरकार के दबाव से भी मुक्ति मिल गई। हालांकि इसका यह भी नतीजा हुआ कि पीपुल्स वॉर ग्रुप के नेताओं को अपने इलाके से हटकर मध्य भारत के दंडकारण्य इलाके में अपना आधार क्षेत्र बनाना पड़ा। इस विलय ने उनको खड़े होने की नई जगह दे दी।
इसी तरह, साल 2010 में सिविल सोसायटी के कुछ संगठनों की पहल पर माओवादियों से वार्ता का एक और दौर शुरू हुआ। इसमें केंद्रीय गृह मंत्रालय भी शामिल था, जिसकी बागडोर उस समय पी चिदंबरम के हाथों में थी। यह वार्ता इसलिए टूट गई, क्योंकि इसी बीच भाकपा (माओवादी) प्रवक्ता और पोलित ब्यूरो सदस्य चेरूकुरी राजकुमार को मार गिराया गया। हालांकि उन्हें आंध्र प्रदेश पुलिस ने मारा था। इस वार्ता के टूटने के बहुत से कारणों में एक कारण केंद्र सरकार का अड़ियल रवैया भी था। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समय बहुत जल्दी बीत जाता है। कितने लोगों को याद होगा कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी कभी हथियारबंद बागियों की जमात थी, जिसके सदस्यों की धर-पकड़ भी हुई और उस पर पाबंदी भी लगी? लेकिन 1996 में इसी भाकपा के इंद्रजीत गुप्त भारत के गृह मंत्री बने। बाद में उसी गृह मंत्रालय का जिम्मा संभालने वाले चिदंबरम उस समय वित्त मंत्री के तौर पर इंद्रजीत गुप्त के मंत्रिमंडलीय सहयोगी थे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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