आदिवासियों की हत्या करने में भारतीय गणतन्त्र को शर्म नहीं आती है
2 जनवरी, 2006 को ओडिसा के जजपुर जिले स्थित कलिंगानगर में टाटा कम्पनी के प्रस्तावित ग्रीन फील्ड परियोजना का विरोध करने वाले आदिवासियों पर बम एवम् बन्दूक से हमला किया गया, जिसमें 19 आन्दोलनकारी मारे गये। इतिहास बताता है कि जहाँ-जहाँ आन्दोलनकारी शहीद हुये हैं वहाँ उनकी जमीन बच गयी है। इसलिये कलिंगानगर जाते समय मेरे मन में भी काफी उत्साह था उस आन्दोलन के बारे में जानने के लिये। मैं उन बहादुर आदिवासी शहीदों के बारे में जानना चाहता था, जिन्होंने अपने पूर्वजों की धरोहर को बचाने के लिये अपनी जान दे दी। लेकिन कलिंगानगर पहुँचते ही मेरे होश उड़ गये क्योंकि वहाँ टाटा कम्पनी का एक विराट स्टील प्लान्ट खड़ा किया जा रहा है। फिर भी हम बचे हुये आन्दोलनकारियों को खोजने लगे।
शाम होते ही कलिंगानगर रोशनी की चकाचौंध छटा से सराबोर हो गया। आधुनिक दौड़ में इसी को विकास कहते हैं विकास पंडित। लेकिन हम तो इस चकाचौंध रोशनी में भी उन आदिवासियों को देखना चाहते थे, जिनकी जमीन पर टाटा कम्पनी की विशाल इमारत खड़ी की जा रही है। निश्चय ही आदिवासी दिखे, लेकिन अपनी ही जमीन पर मजदूरी करते हुये। टाटा प्लान्ट के बाहर सैंकड़ों की संख्या में हड़िया बेचते हुये। और कुछ लोग इस चिन्ता में पड़े हुये मिले कि उनका अस्तित्व बच पायेगा या नहीं। कुल मिलकर कहें तो भविष्य अंधकारमय!
कलिंगानगर का इलाका 'हो' आदिवासी बहुल था। लेकिन नीलाचल इस्पात निगम लिमिटेड (एनआईएनएल) एवम् टाटा कम्पनी की स्थापना के बाद यहाँ गैर-आदिवासियों की संख्या निरन्तर बढ़ने लगी है। नये-नये रेस्टोरेन्ट, होटल और टाउनशिप का निर्माण हो रहा है। आदिवासियों के साथ एक और बड़ी त्रासदी यह है कि निलाचल, टाटा कम्पनी एवम् ओडिसा सरकार ने तो विकास के नाम पर उनसे लगभग 13,000 एकड़ जमीन छीन लिया है। लेकिन इन कम्पनियों में नौकनी करने आये गैर-आदिवासियों ने भी गैर-कानूनी तरीके से उनकी बची-खुची जमीन को हड़पने का प्रयास जारी रखा है, जो तब तक चलता रहेगा जब तक यहाँ के आदिवासी पूरी तरह से लुट नहीं जाते हैं। गाँवों से शहरों में विकसित किया गया जमशेदपुर, रांची, बोकारो, राउरकेला या आप कहीं का भी उदाहरण ले लीजिये। वे इसी तरह लूटे गये हैं और लूटे जा रहे हैं। आज के जमाने में विकास का मतलब ही यही है कि आदिवासियों से उनकी जमीन, जंगल, पानी, खनिज और पहाड़ छीनकर पूँजीपतियों को दे देना। और जिन-जिन राज्यों की सरकारें इसमें जितना ज्यादा माहिर हैं उसे उतना ही ज्यादा तेजी से उभरता हुआ राज्य कहा जा रहा है। अब इस सूची में छत्तीसगढ़ और ओडिसा पहले और दूसरे पायदान पर दिखायी दे रहे हैं। इसी से आप समझ सकते हैं कि इन राज्यों में आदिवासियों के संसाधनों को लूटने की रफ्तार कितनी तेज है।
आदिवासियों के कलिंगनगर आने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। यह क्षेत्र सुकिंदा कहलाता है, जहाँ सुकिंदा राजा का शासन चलता था। कहा जाता है कि सुकिंदा एवम् पोड़हाट के राजाओं के बीच काफी अच्छी दोस्ती थी। सुकिंदा राजा के पास प्रजा बहुत कम थी इसलिये जंगल की रक्षा हेतु उन्होंने पोड़हाट के राजा से कुछ प्रजा अपने यहाँ भेजने का आग्रह किया। इस पर पोड़हाट के राजा राजी हो गये और आदिवासियों को यहाँ भेज दिया। इस तरह से आदिवासी यहाँ पर आये। सुकिंदा राजा ने आदिवासियों की मेहनत को देखकर उन्हें यहीं बसाया और उन्हें जमीन भी दे दी। इसके बाद में और भी आदिवासी इस क्षेत्र में आये, जिन्होंने जंगल साफ कर खेती योग्य जमीन बनायी। आज भी आदिवासियों के पास राजा द्वारा निर्गत पट्टा उपलब्ध है। हालाँकि 1928 में पहली बार अँग्रेज सरकार ने जमीन का सेटलमेन्ट किया लेकिन उस समय भी सभी को पट्टा नहीं दिया गया। यहाँ के आदिवासी आज भी जमीन पर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं क्योंकि जमीन उनके आजीविका का संसाधन भर नहीं है लेकिन उनकी पहचान, संस्कृति, इतिहास, विरासत और अस्तित्व भी जमीन पर ही निर्भर है।
1991 में उदारीकरण के तुरन्त बाद सरकार की नजर इस क्षेत्र पर पड़ी। 1992 में ओडिसा सरकार ने यहाँ ''कालिंगानगर इण्डस्ट्रियल कॉम्पलेक्स'' के निर्माण हेतु जमीन अधिग्रहण कानून 1894 के तहत जमीन का मूल्य प्रति एकड़ 37,000 रूपये निर्धारित कर अधिग्रहण प्रारम्भ किया लेकिन आदिवासियों ने इसका भारी विरोध किया। इसी बीच कुछ गैर-आदिवासी लोग सरकार को जमीन देने के लिये तैयार हो गये। इस तरह से सरकार ने 13,000 एकड़ जमीन को अधिगृहीत घोषित कर दिया लेकिन रैयतों से जमीन हासिल करने में असमर्थ रहा। इसी बीच कुछ अधिगृहीत जमीन पर भूमि पूजन भी किया गया लेकिन फिर से रैयतों के विरोध के कारण कार्य प्रारम्भ नहीं किया जा सका। इसी बीच भूषण कम्पनीएवम् सिमलेक्स कम्पनी ने भी इस क्षेत्र में जमीन लेने का प्रयास किया लेकिन आदिवासियों के भारी विरोध की वजह से वे भी अपने मनसूबे में कामयाब नहीं हुये।
फिर 1997 में ओडिसा सरकार के सहयोग से चलने वाली कम्पनी 'नीलाचल इस्पात निगम लिमिटेड (एनआईएनएल) इस्पात निगम लिमिटेड' का यहाँ आगमन हुआ। कम्पनी ने प्रतिवर्ष 1.1 मिलियन टन आयरन एवम् स्टील उत्पादन क्षमता वाली प्लान्ट की स्थापना का प्रयास शुरू किया। कम्पनी ने जमीन के बदले मुआवजा एवम् नौकरी देने के नाम पर आदिवासियों से लगभग 2500 एकड़ जमीन माँगी। जब आदिवासी लोग इसके लिये तैयार हो गये तो कम्पनी ने पूरी जमीन पर घेरा डाल दिया। इसके बाद सेरेंगसाई, खोडयापुम, सरामपुर, डोंकागडिया एवम् हेसाकुंडी के लगभग 1000 घरों को बुलडोजर से रौंद दिया गया और विरोध करने वाले आदिवासियों को पुलिस द्वारा लाठी चलवायी गयी एवम् उन्हें जेलों में डाल दिया गया। इसके बाद बचे हुये लोगों को गोबरघाटी कॉलोनी में डम्प कर दिया गया तथा सात वर्षों तक उन्हें न मुआवजा और न ही नौकरी दी गयी। कम्पनी के रवैये को देखते हुये आदिवासियों ने 2004 में ''विस्थापन विरोधी जनमंच'' का गठन कर कम्पनी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। आदिवासियों के भारी विरोध को देखते हुये नीलाचल इस्पात निगम लिमिटेड (एनआईएनएल) ने रैयतों को जमीन का मुआवजा और नौकरी देना प्रारम्भ किया। हालाँकि अभी भी सभी रैयतों को मुआवजा और नौकरी नहीं मिल पायी है। आन्दोलन के नेतृत्वकर्ता चक्रधर हाईब्रू कहते हैं कि आन्दोलन नहीं होने से रैयतों को कुछ भी नहीं मिलता।
इसी बीच 17 नवंबर, 2004 को ओड़िसा सरकार एवम् टाटा कम्पनी के बीच ग्रीनफील्ड परियोजना हेतु एक समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर किया गया। कालिंगानगर परियोजना टाटा की दूसरी सबसे बड़ी ग्रीनफील्ड परियोजना है जो दो फेज़ में 3-3 मिलियन टन का बनेगा, जिसकी लागत 15,400 करोड़ रूपये है, जिसके लिये कम्पनी को कुल 6000 एकड़ जमीन की जरूरत है। सरकार ने टाटा कम्पनी को 3471.808 एकड़ जमीन दे दिया है जो ओडिसा इण्डस्ट्रियल इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेन्ट कॉरपोरेशन द्वारा हस्तान्तरित है, जिसमें 2755.812 एकड़ जमीन 1195 परिवारों से लिया गया है। टाटा कम्पनी दावा करती है कि सरकार ने रैयतों से 1992 में ही भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा-34 के तहत मुआवजा दे दिया था लेकिन विस्थापित लोगों को जमीन से बेदखल नहीं किया गया था। इस तरह से टाटा कम्पनी इस क्षेत्र में प्रवेश कर गयी और परियोजना लगाने का प्रयास शुरू कर दिया।
2 जनवरी, 2006 को टाटा कम्पनी ने बुलडोजर लगाकर जमीन का समतलीकरण प्रारम्भ किया,जिसको देखते हुये आदिवासियों के बीच आक्रोश पैदा हुआ और वे काम रोकने के लिये प्रस्तावित परियोजना स्थल पर गये जहाँ पुलिस के साथ सीधा संघर्ष हुआ। आन्दोलन के नेता अमर सिंह वानारा बताते हैं कि परियोजना स्थल को लगभग 300 सुरक्षा बलों ने घेरकर रखा था और कम्पनी के लोगों ने जमीन में लैण्ड माईंस बिछाया था इसलिये जैसे ही आन्दोलनकारी वहाँ विरोध करने पहुँचे लैण्ड माईंस बलास्ट किया गया एवम् लोगों के ऊपर फायरिंग भी की गयी, जिसे घटना स्थल पर ही 12 लोगों की मृत्यु हो गयी एवम् 50-60 लोग बुरी तरह से घायल हो गये। इतना ही नहीं कम्पनी के लोगों ने लाशों के साथ भी अमानवीय व्यवहार किया। चक्रधर हाईब्रू एवम् अमर सिंह वानारा दोनों बताते हैं कि पोस्ट मॉर्टम के बाद जब उन्हें लाश दिया गया तब कुछ महिलाओं का स्तन एवम् कुछ का हाथ कटा हुआ था, जिसे जनाक्रोश और ज्यादा बढ़ गया। आन्दोलनकारियों ने सभी शहीदों का अन्तिम संस्कार एक ही जगह किया जहाँ बाद में शहीद स्थाल का निर्माण किया गया है। आन्दोलन के दौरान पुलिस फायरिंग में 12 लोग एक साथ मारे गये थे एवम् सात लोगों की मौत इलाज के दौरान अस्पताल में हुयी। इस तरह से कलिंगानगर गोलीकाण्ड में कुल 19 आदिवासी लोग शहीद हो गये।
इस घटना के बाद आन्दोलन और ज्यादा तेज हो गया। कलिंगानगर से पारादीप जाने वाली सड़क को अनिश्चितकाल के लिये बन्द का दिया गया, जो 14 महीनों तक जारी रहा। स्थिति ऐसी हो गयी थी कि टाटा कम्पनी के लिये परियोजना लगाना मुश्किल दिखाई दे रहा था। और जब 19 लोग शहीद हुये हों तो मानवता के नाते भी टाटा कम्पनी को परियोजना वापस ले लेना चाहिये था। लेकिन टाटा कम्पनी को सिर्फ और सिर्फ लाभ चाहिये उन्हें मानवता से क्या लेना देना है? टाटा कम्पनी ने कई गाँवों के युवाओं को पैसा का लालच देकर दलाल बनाया। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य यह है कि गाँवों में आधुनिक गाड़ियाँ बॉलेरो, पाजेरो, स्कॉरपियो इत्यादि देखा जा सकता है। ये गाड़ियाँ गाँवों में कैसे पहुँची? आन्दोलनकारियों के खिलाफ फर्जी मुकदमा किया गया। आठ आन्दोलनकारियों को कम्पनी के एक कर्मचारी की हत्या करने का आरोप लगाकर जेल भेज दिया गया। चक्रधर हाईब्रू, रवि जारिका, चक्रधर हाईब्रू (जूनियर), तुरम पूर्ति, प्रताप चाला इत्यादि के खिलाफ माओवादी होने का आरोप लगाकर फर्जी मुकदमा दर्ज किया गया। कोई भी ऐसा आन्दोलनकारी नहीं है, जिसको पुलिस ने धमकाने की कोशिश नहीं की। पुलिस आन्दोलनकारियों को बाजार, घर या तालाब कहीं से भी उठा लेती थी। इस तरह से लगभग 120 लोगों को जेल में डाला गया। इस तरह से आन्दोलन को तोड़ा गया, जिसमें राजनीतिक दलों के स्थानीय नेताओं ने भी इसमें प्रमुख भूमिका निभायी क्योंकि उन्हें भी पैसा का लालच दिय गया।
इतना ही नहीं जजपुर जिले के जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक एवम् सहायक पुलिस अधीक्षक लगातार आन्दोलन के नेतृत्वकर्ताओं के पास जाकर उन्हें समझाने व धमकाने की कोशिश में जुटे रहे। ऐसा लगने लगा था कि जजपुर जिले का प्रशासन एवम् पुलिस दोनों सिर्फ टाटा कम्पनी के लिये काम कर रहे हैं। आन्दोलन के नेता चक्रधर हाईब्रू बताते हैं किजिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक एवम् सहायक पुलिस अधीक्षक उसके यहाँ जाते थे एवम् उसे गेस्ट हाउस भी बुलाकर यही कहते थे कि वे कम्पनी का विरोध नहीं करे नहीं तो उसे इसके लिये भुगतना पड़ेगा। पुलिस दमन के कारण आन्दोलनकारी एवम् ग्रामीण भयभीत हो गये व जमीन देने के अलावा उनके पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं बचा।
आन्दोलनकारी अमर सिंह वानरा कहते हैं कि राजकीय दमन ने आदिवासियों को जमीन छोड़ने के लिये मजबूर कर दिया। अतः आदिवासियों ने टाटा कम्पनी को अपनी दे दी। इस परियोजना से सनचानडिया, बैइबुरू, चम्पाकोयला-1, कालामाटी, चंडिया, बालिगोथा, गोबरघाटी,बमियागोथा, चम्पाकोयला-2, अम्बागडिया, ससोगोथा, गदापुर एवम् बन्दगाडिया गाँवों के लगभग 6000 लोग विस्थापित हो गये। उनके गाँवों को बुलडोज कर उन्हें ट्राँजिट कॉलोनियों में रख दिया गया और प्रचार किया जा रहा है कि वे स्वयम् ही जमीन देने के लिये राजी हो गये और टाटा परिवार के सदस्य बन गये हैं।
टाटा कम्पनी के कलिंगानगर परियोजना का निर्माण ठेका पर किया जा रहा है, जिसमें 35,000 मजदूर प्रतिदिन 170 रूपये की हाजरी पर कार्यरत हैं। यह अलग बात है कि ओवर टाईम काम करके वे ज्यादा पैसा कमा लेते हैं लेकिन वे प्रतिदिन शाम में नशीले पदार्थों का सेवन कर अपनी सेहत भी बिगाड़ रहे हैं। और यह करना उनकी मजबूरी है वरना काम ही नहीं कर पायेंगे। इतना ही नहीं कम्पनी के बाहर सैंकड़ों की संख्या में हड़िया दुकान,दारू दुकान एवम् छोटे-छोटे अन्य दुकान हैं। मीडिया की भाषा में ये सारे रोजगार हैं,जो कम्पनी द्वारा पैदा किया जाता है। इसमें हास्यास्पद बात यह है कि जहाँ भी कोई बड़ा परियोजना का निर्माण होता है उसमें दिहाड़ी मजदूरी, उसके इर्द-गिर्द लगने वाले सभी तरह के दुकान हड़िया-दारू दुकान सहित रोजगार के श्रेणी में आते हैं लेकिन वहीं काम आम जगहों पर होने पर रोजगार के श्रेणी में नहीं गिने जाते है। कभी-कभी तो इसे गैर-कानूनी कार्य की श्रेणी में भी रखा जाता है और लोगों को जेल भी जाना पड़ता है।सवाल यह भी है कि 35,000 मजदूरों का भविष्य क्या है? क्या प्लान्ट तैयार हो जाने के बाद उन्हें बाहर नहीं कर दिया जायेगा? बड़ा उद्योग को ही विकास और रोजगार बताकर ढोल पीटने वाली मीडिया को इसका जवाब देना चाहिये।
26 जनवरी, 2001 को देश के पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने गणतन्त्र दिवस के मौके पर राष्ट्र को सम्बोधित करते समय देशवासियों को चेतावनी देते हुये कहा था कि ''आनेवाली पीढ़ी हमें यह न कहे कि इस हरी-भरी धरती एवम् उस पर सदियों से वास करने वाले बेगुनाह आदिवासियों को बर्बाद कर भारतीय गणतन्त्र का निर्माण किया गया''।लेकिन कलिंगानगर का दौरा करने के बाद मुझे यह विश्वास हो चुका है कि भारतीय गणतन्त्र को आदिवासियों की हत्या करने में शर्म नहीं आती है। और वह लगातार आदिवासियों की लाश पर इस आधुनिक भारत का निर्माण में लगा हुआ है। अब मेरा विश्वास भी तथाकथित लोकतन्त्र से लगातार टूटता जा रहा है। आजकल राष्ट्रीय टेलिविजन चैनलों में हम आदिवासियों को यह लेक्चर दिया जा रहा है कि अगर हमारे साथ अन्याय हो रहा है तो हमें लोकतान्त्रिक तरीके से आवाज उठाना चाहिये न कि बन्दूक की गोली से। मैं उन लोगों से पूछना चाहता हॅं कि आप किस लोकतन्त्र की बात कर रहे है?क्या कलिंगानगर के आदिवासी बन्दूक लेकर टाटा कम्पनी का विरोध कर रहे थे? जब जिले का उपायुक्त और पुलिस अधीक्षक पूँजीपतियों को जमीन दिलाने में दिन-रात एक कर दे तो आदिवासी लोग किसके पास जायें? जिले के उपायुक्त को ही तो आदिवासियों की जमीन रक्षा का जिम्मा दिया गया है? आदिवासियों के लिये लोकतन्त्र कहाँ है?
टाटा कम्पनी के कलिंगानगर परियोजना का नारा है ''नया जीवन, नई आशा'' लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि 19 आदिवासियों की हत्या कर उनकी जमीन पर विकास की इमारत खड़ा करने वाली टाटा कम्पनी आदिवासियों को क्या नया जीवन और नयी आशा दे सकती है? क्या 19 शहीदों का कोई मूल्य भी है? क्या कम्पनी और सरकार तब भी इसी तरह का व्यवहार करते जब 19 गैर-आदिवासी वहाँ शहीद हो गये होते? आदिवासियों की लाश पर विकास की इमारत खड़ा करने से पहले पाँचवी अनुसूची एवम् पेसा कानून की अनदेखी क्यों की गयी? क्यों आदिवासियों से यह नहीं पूछा गया कि वे क्या चाहते हैं? क्या इस लोकतन्त्र में आदिवासियों का कोई अधिकार ही नहीं है? आदिवासियों को चारों तरफ से क्यों लूटा जा रहा है? क्या तथाकथित मुख्यधारा में शामिल लोगों के पास मानवता, नैतिकता और भाईचारा ही नहीं बची है? अगर ऐसा ही है तो आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल कर आप उन्हें भी लुटेरा मत बनाईये। आदिवासियों को आदिवासी ही रहने दीजिये क्योंकि हम हरी-भरी धरती एवम् किसी के लाश पर विकास की इमारत खड़ा नहीं करना चाहते हैं।
- ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता और झारखण्ड ह्यूमन राईट्स मूवमेन्ट के महासचिव हैं।
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