Sunday, June 16, 2013

विवेकानंद की धर्म-दृष्टि

विवेकानंद की धर्म-दृष्टि

Sunday, 16 June 2013 12:23

कुलदीप कुमार 
जनसत्ता 16 जून, 2013: हमारे देश के कम्युनिस्ट आंदोलन के बारे में मुझे कई बातें कभी समझ में नहीं आर्इं। उसके शीर्ष पर श्रीपाद डांगे, ईएमएस नंबूदिरीपाद और बीटी रणदिवे जैसे बौद्धिक रहे तो उसमें शिव वर्मा, कल्पना जोशी और कैप्टन लक्ष्मी सहगल जैसे क्रांतिकारी भी। भगतसिंह चौबीस साल की उम्र में ही फांसी पर झूल गए। पर अपने अंतिम वर्षों में मार्क्सवाद और रूसी क्रांति से काफी प्रभावित हो गए थे और उन्होंने जेल में ही 'मैं नास्तिक क्यों हूं' लेख लिखा था। स्वामी विवेकानंद के विचारों में बहुत कुछ ऐसा था जो प्रगतिशील सोच को बढ़ावा देने वाला था। लेकिन कम्युनिस्ट आंदोलन ने इन और इन जैसी अन्य अनेक शख्सियतों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। अपनी किशोरावस्था में मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी पत्रिका 'राष्ट्रधर्म' पढ़ा करता था। मेरे कस्बे नजीबाबाद के सरस्वती पुस्तकालय में वह आती थी और मैं पुस्तकालय में बैठ कर रोज ही कुछ न कुछ पढ़ा करता था। उसमें भगतसिंह और स्वामी विवेकानंद समेत अन्य इसी प्रकार की विभूतियों के बारे में लगातार लेख छपते थे, जिनमें संघ के वैचारिक आग्रहों के साथ उनके राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद की व्याख्या की जाती थी। कई वर्षों बाद जब मुझे पता चला कि भगतसिंह तो नास्तिक और मार्क्सवादी थे, और स्वामी विवेकानंद मजदूरों के शासन की बात करते थे, पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ, क्योंकि मैं तो उन्हें संघ के वैचारिक वृत्त के भीतर समझता था।
कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रकाशनों में या मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों द्वारा किए गए लेखन में स्वामी विवेकानंद पर लिखे गए छिटपुट लेखों या पुस्तिका के अलावा मेरी निगाह में अभी तक कुछ खास नहीं गुजरा है। इस उपेक्षा के पीछे क्या कारण है और क्यों भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों और स्वामी विवेकानंद जैसे विचारकों को संघ के हाथों सौंप दिया गया, यह अभी तक मेरी समझ के बाहर है। 
ये विचार इसलिए मन में आ रहे हैं, क्योंकि राजनीतिक दर्शन के मर्मज्ञ ज्योतिर्मय शर्मा की नई किताब मेरे सामने है। किताब का नाम है 'कॉस्मिक लव एंड ह्यूमन एपेथि: स्वामी विवेकानंद्स रीस्टेटमेंट आॅफ रिलीजन' (ब्रह्मांडीय प्रेम और मानवीय उदासीनता: स्वामी विवेकानंद का धर्म का पुनराख्यान)। ज्योतिर्मय शर्मा हैदराबाद विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं। वे 'टाइम्स आॅफ इंडिया' और 'द हिंदू' में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं और हैदराबाद में तो वर्षों तक वे 'टाइम्स आॅफ इंडिया' के स्थानीय संपादक थे। इसके पहले भी उन्होंने दो पुस्तकें लिखी हैं। एक हिंदुत्व पर है और दूसरी संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर पर। स्वामी विवेकानंद पर उनकी ताजा किताब को मैं अभी तक पूरे मनोयोग से नहीं पढ़ पाया हूं, लेकिन उलट-पलट कर जितना देखा है, उसे देख कर विस्मित हूं।
कुछ साल पहले प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर डीएन झा की एक पुस्तक आई थी, जिस पर बहुत बावेला मचा था। 'पवित्र गाय का मिथक' नामक इस पुस्तक में उन्होंने ऐतिहासिक साक्ष्य देकर बताया था कि प्राचीन भारत में गौमांस भक्षण प्रचलित था और ब्राह्मण भी इसे खाते थे। हिंदू संगठनों की ओर से इसका विरोध किया गया और खासा विवाद रहा। ज्योतिर्मय शर्मा की पुस्तक में स्वामी विवेकानंद की संकलित रचनाओं से उद्धरण दिए गए हैं, जिनमें विवेकानंद ने स्पष्ट शब्दों में कहा है- 'एक समय था जब भारत में बिना गौमांस खाए कोई ब्राह्मण, ब्राह्मण रह ही नहीं सकता था। वेदों में हम पढ़ते हैं कि जब किसी के घर कोई संन्यासी, कोई राजा, या कोई  

महापुरुष आता था, तो उसके लिए सबसे उत्तम बैल को मारा जाता था।' विवेकानंद के इस कथन के खिलाफ कौन-सा हिंदुत्ववादी संगठन प्रदर्शन करेगा? विवेकानंद का मानना था कि सदियों की गुलामी से मांस खाना बेहतर है। नौजवानों को उनकी सलाह थी कि अपनी मांसपेशियां बनाने के लिए वे जरूरत हो तो गौमांस भी खाएं और अपने भीतर राजसिक प्रवृत्ति पैदा करें।
रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद की गुरु-शिष्य जोड़ी कुछ-कुछ वैसी ही है जैसी महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की थी। गुरु के प्रति शिष्य की अपार भक्ति, लेकिन गुरु की आस्थाओं और विश्वासों के प्रति प्रश्नरहित निष्ठा नहीं। बल्कि कुछ बातों में एकदम विपरीत। रामकृष्ण परमहंस काली, यानी ईश्वर के प्रति भावाकुलता और प्रेम को सर्वाधिक महत्त्व देते थे। उधर विवेकानंद इसे स्त्रैण समझते थे। रामकृष्ण दूसरों की सेवा करने, दान करने या इस तरह के अन्य कामों को 'अहं' का प्रतीक समझते थे, क्योंकि उनके विचार में करुणा और दया केवल ईश्वर के अधिकार में हैं, मनुष्य के नहीं। शंभु मलिक के बारे में वे कहते हैं कि वह दक्षिणेश्वर आकर दान करने में ही सारा समय लगा देता है और उसे काली के दर्शन करने तक की फुरसत नहीं मिलती। उनकी राय में जरूरत से अधिक सेवाकार्य भगवतप्राप्ति की राह में रोड़ा था। लेकिन विवेकानंद ने दीन-दुखियों की सेवा में ही धर्म के दर्शन किए। विवेकानंद द्वारा प्रचारित धर्म पौरुषमय, भावाकुलता से रहित और व्यावहारिकता पर आधारित धर्म था।
स्वामी दयानंद सरस्वती की तरह ही स्वामी विवेकानंद भी वेदों को सबसे ऊपर मानते थे। फर्क यह था कि वे वेदों के साथ-साथ उपनिषदों का भी समान महत्त्व स्वीकार करते थे और उन्होंने अपनी व्याख्या सेवेदांत को 'व्यावहारिक वेदांत' में बदल दिया था। लेकिन दोनों स्वामियों की तुलना करें तो जहां विवेकानंद का व्यक्तित्व अधिक आकर्षक और आधुनिक था, वहीं जाति के सवाल पर दयानंद उनसे अधिक आकर्षक   लगते हैं। ज्योतिर्मय शर्मा ने दयानंद का जिक्र नहीं किया है, लेकिन मुझे किताब पढ़ते हुए उनका स्मरण हो आया। 
स्वामी दयानंद के लिए हर वह व्यक्ति आर्य यानी श्रेष्ठ था जो वेदों की सत्ता को सर्वोपरि समझे। आर्य समाज में होने वाले हवन में किसी भी जाति का व्यक्ति भाग ले सकता था। लेकिन स्वामी विवेकानंद इस मुद्दे पर उलझे हुए नजर आते हैं। अद्वैतवादी होने के कारण उन्हें हरेक प्राणी और वस्तु की एकता में विश्वास है, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर उन्हें जाति-व्यवस्था भी अनिवार्य लगती है। वह ब्राह्मण को बौद्धिक और सांस्कृतिक दृष्टि से श्रेष्ठतर मानते हैं और चाहते हैं कि वे निचली जातियों को अपने स्तर तक उठाने के लिए प्रयास करें। वे उच्च जातियों के विशेषाधिकारों को भी समाप्त करना चाहते हैं, लेकिन उनके पास लोगों के मन में सदिच्छा जगाने के अलावा और कोई सुझाव नहीं। एक सामाजिक संस्था के रूप में जाति-व्यवस्था, जिसकी जड़ें हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी गहराई से जमी हैं, की समाप्ति को विवेकानंद आवश्यक नहीं मानते, क्योंकि उनका कहना है कि जिस देश में भी वह गए हैं, उसमें किसी न किसी रूप में उन्होंने जाति को देखा है। यहां वे पेशे के अनुसार समूह बनने को जाति से मिला कर देखते हैं और जाति-व्यवस्था की इस बुनियादी मान्यता को नजरअंदाज कर देते हैं कि जाति बदली नहीं जा सकती। चाहे किसी की योग्यता कुछ भी क्यों न हो, निचली जाति में पैदा हुआ व्यक्ति अपनी ही जाति के लिए निर्धारित काम करने को अभिशप्त है। जाति की यह जकड़न आज भी दूर नहीं हुई है।

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