Wednesday, March 20, 2013

सरना धर्म पांच राज्यों ; झारखण्ड, बिहार, उड़ीसा, छतीशगड़, बंगाल के सभी जनजाति द्वारा अपनाई गयी है । यहाँ तक की बिरहोर-असुर भी इसे मानते है । हालाँकि इन पांच राज्यों कुछ जनजाति ने अपना धर्म सरना नहीं लिखा है, लेकिन इन्होने अपना धर्म “Other religion unclassified” लिखवया है, अर्थात इन्हें पता ही नहीं है, इनका धर्म क्या है । वैसे इनकी सख्या काफी कम है ।

सरना धर्म 

सरना धर्म पांच राज्यों ; झारखण्ड, बिहार, उड़ीसा, छतीशगड़, बंगाल के सभी जनजाति द्वारा अपनाई गयी है । यहाँ तक की बिरहोर-असुर भी इसे मानते है ।
हालाँकि इन पांच राज्यों कुछ जनजाति ने अपना धर्म सरना नहीं लिखा है, लेकिन इन्होने अपना धर्म "Other religion unclassified" लिखवया है, अर्थात इन्हें पता ही नहीं है, इनका धर्म क्या है । वैसे इनकी सख्या काफी कम है । 
सरना धर्म मानने वाले आदिवासियो की संख्या 36,17,197 है ।
सरना धर्म मानने वाले गैर आदिवासी/जनजाति वालों की संख्या 4,58,049 है ।
इस तरह देश में सरना धर्म मानने वालो की कुल संख्या 40,75,246 है ।
यह संख्या Other Religions and Persuasions का 61.37% है । यह Other Religions and Persuasions में सबसे पहले स्थान पर है ।
सरना को Other Religions and Persuasions में रखे गये अन्य धर्मो से संख्या की नजर से तुलना नहीं किया जा सकता । 
सरना धर्म देश के 21 राज्यों फैला है ।
जब जैन धर्म को 42,25, 053 संख्या के साथ मुख्य धर्मों की सूचि में लाया जा सकता है तो सरना को क्यों नहीं लाया जा सकता ? 
Census, 2001 में काफी विसंगीतियाँ हैं, हो', मुंडा, संथाली, उराँव, खड़िया ..... को भी धर्म मान लिया गया है ।

सरना धर्म संहिता की मांग

प्रकृति पूजक सरना धर्म के मानने वालों ने रांची के मोरहाबादी मैदान में विशाल सम्मेलन आयोजित कर और राज्यपाल को ज्ञापन सौंप कर यह जता दिया है कि सरना धर्म कोड (संहिता) के मामले पर वे कितने उद्वेलित हैं। संविधान की पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों को लागू करने की मांग के साथ-साथ सरना धर्म संहिता के मुद्दे पर उन्होंने आन्दोलन तेज करने का भी एलान कर दिया है। इसी घोषणा के तहत अखिल भारतीय सरना धार्मिक एवं सामाजिक समन्वय समिति का गठन किया गया है। झारखंड अलग राज्य गठन के बाद 12 वर्षों के दौरान राज्य के जितने भी मुख्यमंत्री हुए सभी आदिवासी थे। लेकिन 12 वर्षों की अवधि में सरना धर्म संहिता के मामले में कुछ नहीं किया जा सका। इससे सरना धर्म के मानने वालों में आक्रोश है। झारखंड को आदिवासी बहुल राज्य नहीं भी माना जाय तब भी इस सचाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि यहां जनजातियों की बड़ी आबादी निवास करती है। अपनी भाषा, संस्कृति, पूजा स्थल और पूजा पध्दति आदि को हिन्दू व अन्य धर्मों से अलग मानते हुए ही सरना धर्म को मानने वाले सरना धर्म संहिता की मांग कर रहे हैं। हिन्दू धर्म वस्तुत: किसी मजहब की तरह कोई धर्म नहीं है। यह भांति-भांति के मत-सम्प्रदायों-पंथों का महापरिवार (कामनवेल्थ) है। किसी समय खालसा या सिख पंथ को भी हिन्दू धर्म का ही एक पंथ माना जाता था। अब ऐसा नहीं है। फिर भी बौध्द, जैन, सिख आदि धर्मों को संदर्भ में हिन्दू संस्थानिक मान्यता के दायरे में माना गया है। ये सब देशज धर्म हैं। प्रकृति पूजक सरना धर्म को आदि धर्म भी कहा जाता रहा है। हिन्दू धर्म और सरना धर्म में अधिकांश बातों में समानता मिलती है। झारखंड और आसपास के आदिवासी क्षेत्रों को छोड़कर जो आदिवासी ईसाई धर्म में सम्प्रवर्तित नहीं हुए हैं, वे सरना धर्म शब्द इस्तेमाल नहीं करते। इसलिए इसे कहां और कैसे लागू करना होगा इस पर विशद विचार की आवश्यकता है। केन्द्र सरकार को सब लोगों की भावनाओं और आस्थाओं का ध्यान रखते हुए उचित निर्णय करना चाहिए।


आदिवासियों की जीवन रेखा है सरना धर्म

जागरण संवाददाता, राउरकेला :

आदिवासियों की हासा , भाषा तथा संस्कृति की सुरक्षा के लिए काम करने वाले संगठन आदिवासी सेंगेल अभियान की एक महत्वपूर्ण बैठक शनिवार को पंथ निवास में आयोजित हुई। अभियान के अध्यक्ष रामचंद्र हांसदा की अध्यक्षता में आयोजित इस बैठक में आदिवासियों को अपना अस्तित्व बचाने के लिए

हासा तथा संथाली, हो, मुंडा, कुडुख भाषा को सुरक्षित रखने पर जोर दिया गया।

इस बैठक में पारसी जीतकारिया दिशोम गोमके पूर्व सांसद सलखान मुरमु ने आदिवासियों की समस्या तथा इसके समाधान करने को लेकर विभिन्न कार्य पद्धति पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि आदिवासियों को बचाने के लिए उनकी भाषा(जमीन), उनकी भाषा संथाली, हो, मुंडा, कुडुख आदि भाषाओं की रक्षा करनी होगी। उन्होंने सरना धर्म को आदिवासियों की जीवन शैली बताते हुए कहा कि उनकी जीवन शैली व संस्कृति को लोप होने नहंीं दिया जाएगा। क्योंकि यह ही आदिवासियों की जीवन रेखा है। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार जीवन बचाने को आक्सीजन जरूरी होता है, उसी प्रकार आदिवासियों की हासा, भाषा व संस्कृति बचने से ही उनका अस्तित्व बचेगा। बैठक में जेडीपी के केंद्रीय महासचिव बुढ़ान मरांडी ने स्वागत भाषण दिया। इस बैठक में अन्य लोगों में अखिल भारतीय सारना धर्म परिषद के प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र मांझी, पनत पारगाना बाइतू मांझी, अखिल भारतीय संथाली लेखक परिषद के अध्यक्ष भादुराम सोरेन, नरेंद्रनाथ हेम्ब्रम ने भी वक्तव्य रखा। इस अवसर पर वास्ता मुरमु, गोविंद हांसदा, भादो मुरमु, जगत मुरमु, जगदीश मुरमु, सुधीर मरांडी, सिद्धेश्वर मुरमु, कारिया सोरेन, गुलिया आदि शामिल थे। अंत में सुधीर मरांडी ने धन्यवाद दिया।

http://www.jagran.com/odisha/rourkela-10095890.html


जनजाति समाज और धर्म - सनातन धर्म ही हमारा धर्म शिव शंकर उरांव, संयोजक, झारखण्ड स्वाभिमान जागरण मंच


झारखण्ड में धर्म खण्ड के लिए छिड़े विवाद और बहस में लिए जा रहे विभिन्न नामों की गहराई से विवेचना की जाए तो कई तथ्य उजागर होते हैं। सबसे पहले सरना शब्द को ही लें। यह झारखण्ड राज्य के उरांव और मुण्डा जनजाति के बीच काफी प्रचलित है। अर्थात् दोनों समुदाय के लोग सरना से अच्छी तरह परिचित हैं क्योंकि ये जनजाति समुदाय जिस स्थान पर सामूहिक रूप से अपने इष्ट देवी-देवताओं की पूजा-पाठ, अनुष्ठान करते हैं और जो स्थल साल या सखुआ वृक्षों (जिसे वे सरना वृक्ष भी कहते हैं) का झुण्ड होता है, उसे ही सरना स्थल कहा जाता है। झारखण्ड के सबसे बड़े जनजाति समुदाय संथालों और कोल्हान के हो समुदाय के द्वारा इसी प्रकार अपने पूजा-अनुष्ठान के लिए निश्चित स्थल को जाहरे थान या जायेस्थान कहा जाता है।

ईसाई षड्यंत्र

'धर्म' के रूप में सरना शब्द का प्रचलन भी बहुत पुराना नहीं है। यह शब्द पहली बार 1946 में तत्कालीन ईसाई नेता जुएल लकड़ा के घर में ईसाई और जनजाति समुदाय के नेताओं के बीच हुई एक बैठक के दौरान जयपाल सिंह मुण्डा के द्वारा पहली बार सम्बोधित हुआ था। इस बैठक में अधिकांश ईसाई नेता मौजूद थे। ईसाइयों के द्वारा गैरईसाई मूल की जनजातियों को सम्बोधित करने के लिए पहले सौंसार शब्द का प्रयोग किया जाता था। लेकिन मूल जनजातियों के नेताओं द्वारा सौंसार शब्द से सम्बोधन का जोरदार प्रतिकार किया जाने लगा तो उनके सामने एक विकट समस्या खड़ी हो गई। तब (स्व.) जयपाल सिंह मुण्डा को एक तरकीब सूझी कि जो ईसाई नहीं हैं वे अपना पूजा-पाठ और अनुष्ठान सरना स्थलों पर करते हैं, इसलिए उन्हें 'सरना धर्म' मानने वाले भाई कहा जाए। उस बैठक में मौजूद पश्चिम सिंहभूम के जगन्नाथपुर निवासी नौजवान नेता मुकुन्द तांती ने इस शब्द से सम्बोधन का भी विरोध किया। उनके कथनानुसार, 'मैंने अपनी बात रखते हुए कहा था- सरना तो हमारा पूजा स्थल है, वह हमारा धर्म कैसे हो सकता है? आप लोग अपने धर्म को 'चर्च धर्म' या 'गिरिजा धर्म' क्यों नहीं कहते?'

कुछ लोगों का मानना है कि यह सौंसार शब्द भी ईसाई मिशनरियों के द्वारा ही दिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ धर्मरहित या धर्मविहीन होता है। यही कारण है कि ईसाई मिशनरियों ने इन 'तथाकथित धर्मविहीन' लोगों अर्थात जनजातियों को 'धर्म' की शिक्षा देने के नाम पर विदेशों से धन प्राप्त करके अपनी जड़ों को मजबूत किया है और जनजातियों का मतातंरण करके अपनी ईसाई जनसंख्या में भी अभूतपूर्व वृद्धि की।

इस बहस का सार यही है कि जनजाति समुदाय अपने अस्तित्व और पृथक धार्मिक पहचान के लिए अति संवेदनशील हो उठा है। ऐसी परिस्थिति में यह अपरिहार्य हो गया है कि जनजातियों के इस चिंतन और धर्म खण्ड के लिए आंदोलन को समुचित दिशा और मार्गदर्शन दिया जाए। जनजातियों के बीच अतिसंवेदनशील रूप में मौजूद इस मुद्दे के प्रति उदासीन रहने अथवा कोई स्पष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत न करने पर ईसाई समुदाय, जो मूल जनजाति समुदाय को दिग्भ्रमित करने के लिए उसके कथित नेताओं के माध्यम से सक्रिय है, को जनजातियों के बीच और अधिक गहरी पैठ बनाने का अवसर मिल जाएगा।

हिन्दू और हिन्दुत्व के विचार के प्रति संवेदनशील लोगों और संगठनों के द्वारा हमेशा इस बात को स्पष्ट करने की चेष्टा की जाती रही है कि 'हिन्दू कोई धर्म नहीं हैं बल्कि यह समग्र भारतीय संस्कृति का जीवन दर्शन है। अंग्रेजों के समय में ही जनगणना में हिन्दू धर्म का खण्ड दे दिया गया और यह शब्द धार्मिक समूह के रूप में स्वत: परिभाषित हो गया। आज भी यह विभ्रम बना हुआ है। वास्तव में धर्म के रूप में हिन्दू धार्मिक आस्था और विश्वास को समुचित रूप से प्रतिबिम्बित करने वाला जो मानक शब्द हो सकता है- वह है वैदिक धर्म। प्राचीन काल से जिसे हम हिन्दू धर्मावलम्बी समझते हैं या कहते हैं वे सभी वैदिक धर्मावलम्बी समुदाय हैं। महान हिन्दू विचारक वीर सावरकर ने हिन्दू शब्द पर अपना स्पष्ट विचार प्रकट किया है। उनके अनुसार, पश्चिम में सिंधु नदी से लेकर पूरब में बंगाल की खाड़ी तक और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक फैले भारतीय भू-भाग में निवास करने वाला प्रत्येक समुदाय और जन हिन्दू है। वास्तव में, हिन्दू की यह सबसे सरल और सारगर्भित परिभाषा है। हमारे देश के अन्य प्रमुख मत-पंथ जैसे; सिख, जैन, बौद्ध आदि को भी वृहद् वैदिक धर्म का अंग माना जाता है। लेकिन विगत कुछ सालों से जनजातियों के बीच यह बात कही जा रही है या उन्हें समझाई जा रही है कि जनजाति समुदाय हिन्दू नहीं हैं।

एक यक्ष प्रश्न

जनजाति समुदाय हिन्दू नहीं है तो फिर उनकी धार्मिक आस्था, पारंपरिक मान्यता और रूढ़िगत विश्वास को अभिव्यक्त करने वाले उनके पूजा-पाठ, अनुष्ठानों और पुरातन धार्मिक परम्पराओं, पद्धतियों को किस नाम से व किस रूप में सम्बोधित किया जाए, यह अपने आपमें एक यक्ष प्रश्न है। आज जनजाति समाज अपना अलग धर्म खण्ड हासिल करने के लिए उत्सुक दिखाई देता है। झारखण्ड में आए दिन धर्म खण्ड के नाम पर धरना और प्रदर्शन करना जनजाति संगठनों का क्रम-सा बन गया है। जनजाति समुदाय के इस रूप को देखते हुए ऐसा लगता है कि इसके लिए एक सर्वमान्य और समुचित शब्द होना नितांत आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य भी हो गया है, जो झारखण्ड ही नहीं पूरे देश की जनजातियों को स्वीकार्य हो।

इस बात से शायद ही किसी को इनकार हो सकता है कि सनातन धर्म ही सभी धर्मों का मूल है। यदि यह कहा जाए कि जनजाति समुदाय सनातन धर्मावलम्बी हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हां, कतिपय लोग असहमत हो सकते हैं, लेकिन सर्वथा सत्य यही है।

जनजाति समुदाय अनादिकाल से लेकर आज तक अरण्य में निवास करता आया है और यह उसका अभिन्न अंग रहा है। जनजाति समाज को वृहद् वैदिक सनातन समाज का अभिन्न अंग नहीं मानने वालों के द्वारा सवाल उठाया जाता है कि यदि यह इसका अंग है तो वैदिक समाज की वर्ण व्यवस्था के तहत इनको किस श्रेणी में रखा जाता है। यह उल्लेखनीय बात है कि भले ही जनजाति समुदाय वैदिक धर्म की वर्ण व्यवस्था में शामिल नहीं है, परन्तु तमाम वेद-पुराणों में अरण्यवासियों की एक से बढ़कर एक किस्से और कहानियां पंचतंत्र कथाओं के अंतर्गत भरी पड़ी हैं। वास्तव में आरण्यवासियों की पंचतंत्र में वर्णित गाथाएं और उनके अस्तित्व को वृहद वैदिक समाज के पांचवें स्वतंत्र अंग के रूप में हमेशा से स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि वृहद वैदिक धर्मावलम्बी समुदाय के द्वारा जनजातियों को अपना अंग समझा जाता है। इसमें कोई बुराई नहीं बल्कि यह गौरव की बात है।

इस बात से भला कौन इनकार कर सकता है कि वैदिक समुदाय ही जनजाति समुदाय के सबसे करीब है। यही नहीं, वैदिक धर्मावलम्बी समुदाय और जनजातियों के धार्मिक क्रियाकलापों सहित उनके कई इष्ट देवी-देवताओं आदि भी एक-दूसरे के समान हैं। भले ही उन्हें अलग-अलग भाषाओं में भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित किया जाता हो। उदाहरण के लिए जनजाति जिस देवता को महायदेव, ठाकुरदेव, बूढ़ादेव, पिलचूहड़ाम के रूप में पुकारते और पूजते हैं उसी को वैदिक धर्मावलम्बी समुदाय शिव, महेश, नीलकंठ आदि नामों से सम्बोधित करता और पूजता है। उसी प्रकार जिस देवी को वैदिक समुदाय ने पार्वती का रूप माना उसको जनजाति समुदाय ने भी परबती, चाला या अरण्यदेवी कहकर पुकारा। अनादिकाल से 'देवों के देव को महादेव' कहना सबसे प्रचलित और स्थापित भारतीय सनातन मान्यता और विश्वास है। जनजाति समुदाय भी नि:संदेह सृष्टिकर्ता परमात्मा, ईश्वर, धर्मेस या सिंगबोंगा के बाद महादेव को ही अपना सबसे अधिक करीबी देवता मानता है। अगर जनजाति समुदाय के लिए अलग धर्म खण्ड होना है तो उसके लिए सबसे उपयुक्त और सारगर्भित, जो जनजाति समुदाय की धार्मिक मान्यताओं और रूढ़िगत परम्पराओं को सही अर्थों में प्रतिबिंबित करे, वह शब्द सनातन धर्म ही हो सकता है। इस शब्द के प्रयोग से जनजातियों के मध्य धर्म खण्ड और उसके नाम के लिए चले आ रहे विवाद और परस्पर मतभेदों का भी अंत हो जाएगा।

यदि जनजाति समुदाय इस बात पर सहमत नहीं होता है और ईसाई मिशनरियों के हाथों की कठपुतली बनकर उनके अनुरूप कार्य करने वाले कथित नेताओं के चक्कर में फंसा रह जाता है तो जनजाति समाज के लिए शायद कभी भी धर्म खण्ड नहीं मिल पाएगा। क्योंकि ईसाई समुदाय आंतरिक रूप से कभी यह नहीं चाहता है कि मूल जनजाति समुदाय को धर्म का खण्ड मिले। उनकी योजना है कि मूल जनजातियों के बीच इस मुद्दे पर आपस में किसी भी कीमत पर परस्पर सहमति न बन पाए। क्योंकि वे जानते हैं कि उपर्युक्त शब्दों पर पूरे देश का जनजाति समुदाय कभी भी आपस में सहमत या एकमत नहीं होगा। और तभी वे जनजाति समुदाय के कथित स्वार्थी नेताओं के माध्यम से पूरे जनजाति समाज को अन्य नाम पर सहमत न होते देख विभाजित कर लाभ उठाते रहेंगे।

दूसरी बात, यदि वैदिक धर्मावलम्बी या कहें वृहद सनातनी समाज जनजातियों के इस अति संवेदनशील और उनकी धार्मिक भावना से जुड़े इस मुद्दे के प्रति उदासीन रहा और उनके द्वारा जनजातियों के धार्मिक पहचान के इस संघर्ष में साथ नहीं दिया गया तो ईसाइयों द्वारा जनजातियों को उनके खिलाफ भड़काने और अपना खेल खेलने का अच्छा अवसर स्वत: मिल जाएगा। वैदिक धर्मावलम्बी वृहद सनातन समुदाय अपने अतीत पर नजर डाले और अत्मावलोकन करे तो जनजातियों के मामले में कई ऐसे अवसर आए जब भारी चूक हुई, जिसके कारण ईसाई मिशनरियों को उनके खिलाफ जनजातियों को भड़काने या जनजातियों के मन में सनातन समाज या हिन्दुओं के प्रति सन्देह पैदा करने का अवसर मिल गया। उदाहरण के तौर पर, वैदिक समुदाय या हमारे हिन्दू संगठनों के द्वारा संवैधानिक रूप से जनजातियों हेतु स्थापित शब्द 'अनुसूचित जनजाति' के बदले वनवासी शब्द सम्बोधन का प्रयोग किए जाने को ईसाई मिशनरियों ने उन्हीं के खिलाफ इस्तेमाल किया और इसमें एक हद तक सफल भी हुए।

इसी प्रकार अलग राज्य होते समय, विशेषकर झारखण्ड राज्य के मामले में राज्य के नाम और उनके नामकरण को लेकर गलती पुन: दोहराई गई। जिसके चलते ईसाई मिशनरियों ने एक बार फिर, खासकर झारखण्ड में जनजातियों और झारखण्डियों के मन में इन राष्ट्रवादी संगठनों के प्रति विभ्रम पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसके दूरगामी राजनीतिक और सामाजिक दुष्परिणाम देखने को मिले। अभी भी सामाजिक, राजनीतिक परिस्थिति भी कुछ वैसी ही है, जो उस समय थी। इसलिए अतीत के कडुवे अनुभवों से सीख लेते हुए वैदिक धर्मावलम्बी वृहद् सनातन समाज और राष्ट्रवादी सामाजिक, राजनीतिक संगठनों को समय रहते ठोस और निर्णायक कदम उठाना होगा। द

NEWS

http://panchjanya.com/arch/2010/1/24/File12.htm


सांथाल जनजाति

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संथाल जनजाति झारखंड के ज्यादातर हिस्सों तथा पश्चिम बंगालउड़ीसा और असम के कुछ जिलों में रहने वाली भारत की प्राचीनतम जनजातियों में से एक है।

ये भारत के प्रमुख आदिवासी समूह है। इनका निवास स्थान मुख्यतः झारखंड प्रदेश है। झारखंड से बाहर ये बंगालबिहारउड़ीसामध्य प्रदेशअसम, मे रहते है। संथाल प्रायः नाटे कद के होता है। इनकी नाक चौड़ी तथा चिपटी होती है। इनका संबंध प्रोटो आस्ट्रेलायड से है।

संथालों के समाज मे मुख्य व्यक्ति इनका सरदार होता है। मदिरापान तथा नृत्य इनके दैनिक जीवन का अंग है। अन्य आदिवासी समुहों की तरह इनमें भी जादू टोना प्रचलित है। संथालो की अन्य विषेशता इनके सुन्दर ढंग के मकान हैं जिनमें खिडकीयां नहीं होती हैं। संथाल हिन्दू परंपरा के अंतर्गत ढाकुर जी की उपासना करतें हैं साथ ही ये सरना धर्म का पालन करते हैं।

इनकी भाषा संथाली और लिपि ओल्चिकी है। इनके सात मूल गोत्र हैं ; मरांडी, सोरेन, हासंदा, किस्कू, तुडू, मुरमु, तथा हेम्ब्रम। ये सोहराइ तथा सकरात नामक पर्व मनाते हैं। इनके विवाह को 'बापला' कहा जता है।

उनकी अद्वितीय विरासत की परंपरा और आश्चर्यजनक परिष्कृत जीवन शैली है। सबसे उल्लेखनीय हैं उनके लोकसंगीत, गीत और नृत्य हैं। संथाली भाषा व्यापक रूप से बोली जाती है। दान करने की संरचना प्रचुर मात्रा में है। उनकी स्वयं की मान्यता प्राप्त लिपि 'अल्चीकी' है, जो वनवासी समुदाय के लिये अद्वितीय है।

संथाल के सांस्कृतिक शोध दैनिक कार्य में परिलक्षित होते है- जैसे डिजाइन, निर्माण, रंग संयोजन , और अपने घर की सफाई व्यवस्था में है|दीवारों पर आरेखण, चित्र और अपने आंगन की स्वच्छता कई आधुनिक शहरी घर के लिए शर्म की बात होगी।

संथाल के सहज परिष्कार भी स्पष्ट रूप से उनके परिवार के पैटर्न -- पितृसत्तात्मक, पति पत्नी के साथ मजबूत संबंधों को दर्शाता है| विवाह अनुष्ठानों में पूरा समुदाय आनन्द के साथ भाग लेते हैं। लड़का और लड़की का जन्म आनंद का अवसर हैं | संथाल मृत्यु के शोक अन्त्येष्टि संस्कार को अति गंभीरता से मनाया जाता है। धार्मिक विश्वासों और अभ्यास को हिंदू और ईसाई धर्मों से लेकर माना जाता है। इनमें प्रमुख देवता हैं- 'सिंह बोंगा', 'मोरंग बुरु' और 'जाहेर युग'। पूजा अनुष्ठान में बलिदानों का इस्तेमाल किया जाता है |

[संपादित करें]यह भी देखें

[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ

उत्तरी पश्चिमी गोसनर एवेंजेलिकल लूथेरन चर्च,  सेरेंगहातू

 

 पृष्ठभूमि                                            लेखकः श्री नेम्हस एक्का

 

लोहरदगा के नजदीक लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर कल-कल करती कोयल नदी के तट पर चट्टान के ऊपर सेरेंगहातू गाँव बसा हुआ है। लोहरदगा-बेड़ो-राँची मार्ग इस गाँव से होकर गुजरती है। गाँव के बीचो-बीच पत्थर से बनी एक विशाल गिरजाघर है, और इसके ठीक बगल में लूथरन मिशन का एक प्राथमिक विद्यालय भी स्थित है। मुहल्ले और बसाव के हिसाब से इसे दो मुख्य भागों में विभाजित किया गया है � बड़ा टोला और छोटा टोला। बड़ा टोला में कई समुदाय के लोग रहते हैं जिसमें उराँव-सरना परिवार की बहुलता है। अन्य समुदाय के लोगों की संख्या बहुत कम है। छोटा टोला में मुख्यतः सरना-उराँव और इसाई-उराँव समुदाय के लोग रहते हैं। इसाई-उराँव लोग ही लगभग 75 प्रतिशत हैं। गाँव में उराँव, सादरी और हिन्दी बोली जाती है। यहाँ उराँव भाषा का प्रभाव अधिक पाया जाता है, जिसके कारण उराँव लोगों के अतिरिक्त अन्य समुदाय के लोग भी उराँव बोलना और समझना जानते हैं।  एक इसाई मिशनरी स्व.रेभ.फर्डीनॉड हॉन के द्वारा सन् 1911 में लिखी किताब "कुँड़ख़ ग्रामर" की भूमिका के अनुसार रोहतास गढ़ से उराँवों के निष्कर्सन के बाद उराँव समुदाय के लोग दो भागों में बट गये। एक दल संथाल परगना के राजमहल की पहाड़ियों की ओर कूच किया और दूसरा दल छोटानागपूर में राँची से उत्तर-पश्चिम की ओर आये, जहाँ मुण्डा, तूरी और असुर जनजाति के लोग पूर्व से ही निवास करते थे। बाद में ये लोग उराँव जनजातियों के लिए भू-भागों को छोड़कर दक्षिण की ओर कूच कर गये। इस कारण आज भी इस क्षेत्र के कई गाँवों का नाम मुण्डारी में पाया जाता है। सेरेंग और हातू शब्द का अर्थ क्रमशः चट्टान और गाँव होता है। इस प्रकार सेरेंगहातू शब्द का पूर्ण अर्थ �चट्टानी गाँव� होता है।  नाम से सप्षट होता है कि, कभी इस गाँव में मुण्डाओं का निवास था, और  उन्हीं लोगों के द्वारा इस गाँव का नाम सेरेंगहातू रखा गया। गाँव में चट्टानों का अथाह भण्डार विद्यमान हैं; जिसके कारण भू-गर्भ से पानी निकालना भी कठिन हो जाता है।

आजकल इस गाँव में उराँव जनजातियों के अलावा अल्प-संख्या में हिन्दू और मुसलमान भी  निवास करते हैं।  उराँव जनजातियों के कुल संख्या का लगभग 55 प्रतिशत लोग इसाई हैं। इसाईयों में प्रायः सभी परिवार शिक्षित हैं, और लगभग हर परिवार से कोई न कोई छोटी-बड़ी सरकारी नौकरी करते हैं। नौकरी करने वालों में अधिकतर लोग सैनिक या पुलिस बनकर देश की सेवा करते रहे हैं। हमारे परम्परागत सरना धर्मावलम्बियों में अभी भी उचित शिक्षा का अभाव है, और बहुत कम लोग सरकारी नौकरी करते हैं, और पूरी तरह से कृषि पर निर्भर हैं। उराँव जनजातियों के मध्य आपसी तालमेल काफी अच्छा है। इसाई और परम्परागत सरना धर्म को मानने वाले उराँव जनजाति के लोग बिना किसी भेदभाव के आपसी भाईचारा और प्रेम पूर्वक एक साथ रहते हैं। सन् 1985 से पूर्व तक दोनों धर्मावलम्बी के लोग सरहूल, कर्मा और अन्य सामाजिक रीति-रिवाजों को मिलकर निष्पादित करते थे। इसाई लोग त्यौहारों, धार्मिक अनुष्ठानों तथा पूजा वगैरह में चेंगना(चूजा), मुर्गी, चावल तथा चन्दे का रकम देकर सहयोग करते थे। वर्ष में एक बार नैग-ख़ल की उपज में से पूरे गाँव के लोगो के लिए पिकनिक का आयोजन होता था। धीरे-धीरे दोनों मतावलम्बियों के बीच विचारों में मतभेद हुआ, जिसके कारण इसाईयों को अलग से नैग-ख़ल के उपज मे से अनाज मुहैया कराया जाता था। अब दोनों मत के लोग अलग-अलग पिकनिक का आयोजन करते थे। कालान्तर मे दोनों समाज के लोगों के बीच पूजा-पद्धियों और दान उगाही को लेकर मतभेद होने लगा, जिसके कारण आपसी प्रेम और सौहार्द में कमी आई। एकता में किसी प्रकार का दरार न हो जाय, इस बात को ध्यान में रखते हुए तत्कालिक कुछ बुद्धिजीवी लोग इस समस्या को सुलझाने में सफल हो गये। सन् 1985 ई. में दोनों समाज के प्रतिनिधियों का एक अहम् बैठक बथानी बगीचा में सम्पन्न हुआ। जिसमें यह निर्णय लिया गया कि �दोनों समाज के लोग अपने-अपने मत के अनुसार पूजा-आराधना कर सकते हैं, और किसी प्रकार का दान-देन दूसरे मतावलम्बी से न लिया जाय; और इसाई समाज के लोगों को नैग-ख़ल्ल तथा उसकी उपज पर कोई हक्क नहीं होगा�।  इस निर्णय से दोनों समाज के लोगों में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार मिला, और उनकी एकता बरकरार रही। वर्तमान में, पूजा-पद्धतियों को छोड़कर पर्व-त्यौहार, शादी-विवाह तथा सामाजिक कार्यों में एक दूसरे के परिवार को सहयोग करना, मिलना-जुलना, खुशी मनाना, हाथ बटाना और खान-पान में हिस्सेदार होने का कार्य पूर्वत् जारी है।

गाँव के सर्वांगीण विकास और सरकारी योजनाओं को कार्यान्वित कराने हेतू लगभग सन् 1982 ई. मे एक ग्राम विकास समिति का गठन किया, जिसके द्वारा महीने में एक बार गांव के मध्य में स्थित एक बड़े चट्टान पर बैठकें होती थी। गाँव के हर परिवार से लोग उस बैठक में इकत्रित होते थे। बैठक में सरकारी योजनाओं से लोगों को अवगत कराया जाता था और समिति के माध्यम से गाँव के सड़कों, तालाबों, कुँओं और सिचाई योजनाओं का निर्माण और रख-रखाव की जाती थी। गाँव में दो बड़े तालाब अबतक मौजुद हैं, जिसमें मछली पालन, विक्रय और तालाब का रख-रखाव समिति के द्वारा की जाती थी। दक्षिणी कोयल नदी में मेसो सिचाई योजना द्वारा जमीन गिरवी(Land Mortgage) के आधार पर एक सिचाई पम्प का निर्माण सन् 1975 ई. के आस-पास की गई थी, जिसका पानी गाँव के अन्दर तक पहुँचती थी। इस पानी का उपयोग पीने, नहाने तथा सिचाई के लिए की जाती थी। अब इसका अस्तित्व समाप्त हो चुका है। सन् 1980 ई. के आस-पास जिला सिचाई योजना के माध्यम से पुनः एक दूसरे सिचाई पम्प(क्षमता-5 एच.पी) का निर्माण कोयल नदी किया गया। इस सिचाई पम्प के निर्माण से सेरेंगहातू गाँव में प्रत्येक वर्ष दो फसल का उत्पादन होने लगा और अबतक इस सिचाई योजना का लाभ गाँव के किसानों के मिल रहा है। दिसम्बर-जनवारी-फरवारी माह में हरे-भेरे खेतों को देखकर गाँव के पक्की सड़कों में से गुजरते हुए राहगीर ठिठक सा जाते हैं।

सन् 1981 ई. में भारत के कई चर्चों का एक संगठन कासा के कार्यक्रमों का पदार्पण हुआ, जिसका उद्देश्य किसी इसाई बहुल गाँवों का चयन कर, किसी व्यक्ति, जाति और धर्म को ध्यान दिये बिना लोगों को रोजगार मुहैया कराना तथा उनका आर्थिक व सामाजिक उत्थान करना है। इस संस्था के माध्यम से भी गाँव के बहुत से सड़कों, गलियों, तालाबों और खेतों का जिर्णोद्धार किया गया। एक फसल के बाद खाली पड़ी खेतों में आलू की खेती वृह्द रूप से संस्था के माध्यम से की गई। इन कार्यक्रमों से गाँव के स्त्री-पुरूषों व युवक-युवतियों को अपने गाँव में ही रोजगार उपलब्ध हो जाती थी, और उनकी आर्थिक स्थिति में व्यापक परिवर्तन हुआ। कासा के द्वारा एक दशक तक इस तरह का विकास कार्य ग्रामिणों के हित में किया जाता रहा।

आजकल आधुनिकता और शिक्षा के प्रभाव से लोगों के जीवन शैली में अमुलचुल परिवर्तन हुआ है। आज से एक दशक पूर्व पुरूषों का पहनावा गंजी, कमीज, धोती, लूँगी, छोटा पेंट और करया; तथा युवतियों व महिलाओं के बीच स्कर्ट, बलाउज और साड़ियाँ पहरावे के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। परन्तु आजकल इन पहिरावों में काफी परिवर्तन हो गया है, पुरूष धोती और लूँगी पहनना छोड़कर हमेशा लम्बी पेंट और जिन्स का इस्तेमाल करते हैं। युवतियाँ सलवार कमीज और महिलाएँ साडी पहनती हैं। स्कर्ट पहनने की परम्परा खत्म हो चुकी है। घर में कामकाजी महिलाएँ मेक्सी इस्तेमाल करती हैं। खेतों में काम करने वाले युवक-युवतियों को क्रमशः लम्बी पेंट और सलवार कमीज में आसानी से देखा जा सकता है। गाँव में जीविका का मुख्य साधन कृषि हुआ करता था। कुछ लोग दक्षिणी कोयल नदी मे अतिरिक्त कार्य के रूप में मछवारे का कार्य करते थे। लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल चुकी है, आजकल प्रायः सभी घरों में कोई न कोई सरकारी नौकरी कर रहे हैं; जिसके कारण पैसों का अभाव नहीं होता, और उन्हें पूरी तरह से कृषि पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। नौकरी-पेशा में होने के कारण उनके रहन-सहन, खान-पान और पहिरावे में काफी परिवर्तन आ गया है। अखड़ा में सरना-उराँव युवक-युवतियाँ के द्वारा पर्व-त्यौहारों तथा अन्य अवसरों पर रात-रात भर नृत्य-लीला होती थी। घुँघरुओं की खनक, नगाड़ों की गूँज, और माँदर की थाप से निकलने वाली सुरीली आवाज से जितना आनान्द नृत्य करते युवक युवतियों को होता था, उससे कहीं अधिक आनान्द दर्शकों को होता था। उसी भाँति इसाई- उराँव युवक-युवतियों के द्वारा शादी-विवाह और पर्व-त्यौहारों में पारम्पारिक वाद्य-यंत्रो के साथ सामूहिक नृत्य प्रत्येक के मन को मोह लेती थी। यहाँ यह बात गौर करने वाली है, कि सरना-उराँव और इसाई-उराँव गीत-नृत्य में काफी समानता पाई जाती थी। दोनों ही समाज में महिलाएँ एक दूसरे के साथ हाथों में हाथ जोड़कर गोलाकार आकृति बनाते हुए नृत्य करती थी; और पुरूष बीच में वाद्य-यंत्रों के साथ नृत्य करते थे। कभी-कभी स्त्री-पुरूष मिश्रित होकर नृत्य करते थे। विवाह नृत्य, गीतों और रागों में भी काफी समानता थी। इसके बिपरित आजकल ऐसा गीत-नृत्य युवक-युवतियों के बीच नहीं के बाराबर देखने को मिलती है। गीत और नृत्य में आधुनिक फिल्मों और नागपूरी गीतों का प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है। कभी-कभी युवक-युवतियाँ फिल्मी व नागपूरी गीतों की ताल पर मौन रूप से नृत्य करते हैं। यह निश्चित रूप से युवक-युवतियों को सांस्कृतिक पतन की ओर ले जा रहा है। पुराने दिनों में लोग बहुत कम स्कूल कॉलेज जाते थे। उनके बीच पढ़ाई को बोझ बहुत कम होता था, जिसके कारण रात-रात भर गीतों, भजनों व नृत्यों में समय गुजार देना मामूली बात थी। लेकिन अब समय बदल चुका है। युवक-युवतियों स्कूल कॉलेज में पढ़ाई करती हैं। प्रतियोगी परीक्षाएँ कठिन हो गई है। ऐसी हालत में उनके पास समय का अभाव होना स्वाभाविक बात है।

भाषा किसी भी समुदाय की एक पहचान और प्रतीक होती है। उराँव समुदाय के मध्य अपनी कुँड़ख़ भाषा को बहुत कम प्राथमिकता दी जा रही है। आजकल उराँव भाई-बहनें बोलचाल में सादरी और हिन्दी का इस्तेमाल अधिक करते हैं। उराँव बोलने की परम्परा बुजुर्ग माता-पिता अथवा वयस्कों के मध्य अब भी मौजद है; परन्तु आजकल के बच्चों में कुँड़ुख़ बोलने का प्रचलन लगभग समाप्त हो चुकी है। पढ़ने वाले अधिकतर बच्चे हिन्दी का इस्तेमाल करते हैं। ऐसी स्थिति क्यों पैदा हुई? क्या गाँव में रहने वाले प्रत्येक माता-पिता का यह दायित्व नहीं है कि अपने पुर्वजों से प्राप्त धरोहर को संजोये रखें और निरंतर अपने वंशजो को हस्तांतरित करते रहें? यदि ऐसा नहीं हुआ तो आने वाली पीढ़ी उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।

अन्य जातियों की तुलना में उराँव समुदाय के लोगों में पलायन की समस्या बहुत ज्यादा है। कुछ लोग अच्छे-अच्छे पदों में आसिन होकर नौकरी करने के लिए बाहर गये, और वहीं बस गये; और कुछ गरीब तबके के लड़के-लड़कियाँ दिल्ली जैसे महानगरों की ओर रोजगार की तलाश में पलायन करते रहे हैं। इन लड़के-लड़कियों को पलायन से कैसे रोका जाय, यह एक महत्वपूर्ण विषय हो सकता है।

दो दशक पहले तक गाँव के लोग एक जुट होकर किसी सामुदायिक कार्य को श्रम दान के माध्यम से पूरा करते थे, उनेक बीच कार्यान्वयन के लिए ग्राम समिति होती थी। आज कल आपसी मनमुटाव, खींचतान, इर्ष्या-द्वेष और आपसी वैमनस्य के कारण आपसी तालमेल, भाईचारा, सौहार्द और प्रेम का अभाव पाया जाता है। लेकिन फिर भी, इस प्रकार के मनोभाव और प्रेरणा ग्राम वासियों के दिलो-दिमाग में अब भी मौजुद है, फलतः अपवाद में कुछ ऐसी क्रियाएँ हो जाती है, जिसे नकारा नहीं जा सकता।

 http://www.kurukhworld.com/webs/serenghatu/index.htm


दलित ईसाईयों का नहीं होता खुशनुमा क्रिसमस


क्रिसमस पर विशेष

लाखों की संख्या में आदिवासी महिलाएं और युवक-युवतियां दिल्ली-मुम्बई जैसे बड़े शहरों की ओर पलायन कर शहरों में घरेलू नौकर का काम कर रहे हैं.  केवल राजधानी दिल्ली में ही कुल घरेलू कामगार का काम करने वालों में से 92 प्रतिशत युवतियां आदिवासी ईसाई हैं. . .

विवेकमणि लाकड़ा

क्रिसमस साल का आखिरी त्यौहार होता है.  क्रिसमस के आते ही ईसाई धर्म के अनुयायियों के बीच खुशियां छा जाती हैं.  यह त्यौहार विश्व के अधिकतर देशों में मनाया जाता है. ईसाईयों के पवित्र ग्रन्थ बाइबिल के अनुसार इस दिन ईसा मसीह अपार शांति लेकर इस दुनिया में जन्मे थे, इस खुशखबरी से सारा संसार हर्षोल्लास से भर गया. उसी ख़ुशी के जश्न के तौर पर क्रिसमस मनाया जाता है. क्रिसमस को 'अंधकार पर प्रकाश का विजय पर्व' भी कहा जाता है.

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भले ही यह बात प्रचलित है कि ईसा मसीह के जन्म से संसार में ज्योति का उदय हुआ, लेकिन ईसाईयत के एक वर्ग में अब भी अंधेरा कायम है. यह वर्ग है ईसाई आदिवासियों का. बाइबिल में कहा गया है, 'स्वर्ग में ईश्वर की महिमा और पृथ्वी के लोगों को शांति (लूकस 2:14). " क्रिसमस का यह शुभसंदेश गैरईसाईयों को नहीं, बल्कि ईसाईयों को देने की जरूरत है, क्योंकि भारत के ईसाई समुदाय में ही अशांति व्याप्त है. अगर ईसाई समुदाय में शांति कायम होती तो ईसाई आदिवासी समाज की इतनी दयनीय हालत नहीं होती.

झारखंड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम के आदिवासी इसाई अन्य जातियों से काफी पिछड़े और सबसे अधिक उपेक्षित हैं. इन राज्यों से लाखों की संख्या में आदिवासी महिलाएं और युवक-युवतियां दिल्ली-मुम्बई जैसे बड़े शहरों की ओर पलायन कर शहरों में घरेलू नौकर का काम कर रहे हैं. केवल राजधानी दिल्ली में ही कुल घरेलू कामगार का काम करने वालों में से 92 प्रतिशत युवतियां आदिवासी ईसाई हैं और गैरईसाई आदिवासी यानी सरना धर्म की महिलाएं व युवतियां मात्र 2 प्रतिशत हैं.

गौरतलब है कि इसाई मिशनरियों का शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान है, मगर खुद आदिवासी इसाई इससे वंचित हैं. इसाई मिशनरियों की व्यवस्था व प्रणाली से आदिवासियों को पूरी तरह से आर्थिक एवं शैक्षणिक लाभ नहीं मिल रहा है. पेट की क्षुधा शांत करने की मजबूरी में उन्हें महानगरों की तरफ पलायन करना पड़ रहा है. ऐसे ही लगातार पलायन और विस्थापन होता रहेगा, तो पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में आदिवासी अल्पसंख्यक बनकर रह जाएंगे.

छोटानागपुर में इसाई आदिवासियों के लिए रोजगार तक नहीं है और वे सुविधाविहीन हैं, तो इसके लिए सिर्फ सरकार, राजनीति व नेताओं को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. ईसाई धर्म विशेषकर कैथलिक चर्च के अधिकारियों की जिम्मेदारी बनती है कि वो अपने धर्म के सदस्यों के लिए आर्थिक सुविधाओं के साथ-साथ मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था करें. गांवों में कुल आदिवासी जनसंख्या में से लगभग 70 प्रतिशत परिवार ईसाई हैं. इनकी कमजोर आर्थिक हालत को चर्च की व्यवस्था और प्रणाली के माध्यम से भी सुधारा जा सकता है. सच यह है कि 'ईश्वर की महती ज्योति' को चर्च के अधिकारियों द्वारा इस कमजोर समाज तक पूरी तरह से पहुंचने नहीं दिया जाता है.

जितने भी गरीब आदिवासी इसाई शहरों में रहकर देहाड़ी कार्य कर रहे हैं, वे मकान किराये से लेकर खाने-पीने और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के खर्चे को अपने बलबूते से जुटा रहे हैं. चर्च इनके लिए रहने की व्यवस्था तो दूर, आर्थिक सहायता तक नहीं दिला पाता है. देशभर में चर्चों के माध्यम से बड़े-बड़े स्कूल, कॉलेज, अस्पताल तथा कई संस्थाओं के लिए इमारतें बनायीं गयी हैं. उन इमारतों से जो धन अर्जित होता है, मगर उसका लाभ केवल दक्षिण के ईसाईयों को मिलता है. दूसरी तरफ गरीब आदिवासी ईसाईयों को रहने के लिए झोपड़ी तक नसीब नहीं है.

छोटानागपुर के ईसाई आदिवासी परिवार में कई लड़कियां अपने घर से बहुत दूर शहरों में घरेलू नौकरानी के रूप में किसी अमीर के बंगलों में काम कर रही हैं. ठंड के मौसम में देर रात तक बर्तनों की सफाई करती हैं या किसी गैर के बच्चे की रातभर देखभाल करती हैं. घरेलू कामकाजी लड़कियों के साथ शारीरिक, मानसिक और यौन शोषण आज आम हो गया है. कई बार तो उनकी हत्या तक कर दी जाती है. खुद की ज्यादतियों से तंग आकर इन परिवारों के कई युवा नक्सली जैसे हिंसात्मक कहे जाने वाले गुटों में शामिल हो पुलिस से छुपकर जंगलों में रहते हैं. कब उनके साथ क्या हो जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता. ऐसी स्थिति में क्या आदिवासी परिवारों में आत्मिक व मानसिक शांति हो सकती है?

माना जाता है कि कैथलिक चर्च ने ही आदिवासी समाज में शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान दिया है. लेकिन जो भी लाभ आदिवासियों को मिला है, उसका श्रेय वर्ष 1860 से 1900 के बीच छोटानागपुर क्षेत्र में ईसाई धर्म प्रचारक बेल्जियम के पुरोहित फादर लिबन्स और उसके शिष्य पुरोहितों पर जाता है. उन्होंने सच्चाई और ईमानदारी से आदिवासियों की सेवा की और उनके लिए कई स्कूल बनवाकर मुफ्त में शिक्षा प्रदान की. आज के कैथलिक पुरोहितों में वो दम नहीं है कि फादर लिबन्स जैसे लोग काम कर सकें.

इसाई आदिवासियों को विकास की राह पर ले जाने के लिए चर्च के अधिकारी पूरी तरह असफल हो चुके हैं. यदि उन्होंने सच्चाई और ईमानदारी से इस समाज की सेवा की होती, तो आज छोटानागपुर क्षेत्र के एक-एक गांव से आदिवासी आईएएस, आईपीएस, डॉक्टर, इंजीनियर और राजदूत बनकर देश में राज कर रहे होते.

क्या गरीबों की सेवा के लिए विदेशी फंड से जो पैसा आता है, उसको ईमानदारी से गरीबों तक पहुंचाया जाता है. हर रविवार के दिन मिस्सा-पूजा के दौरान ईसाई धर्मावलम्बियों द्वारा चढ़ावा के रूप में जो रुपये दान में एकत्र होता है, क्या उनसे गरीबों की सहायता की जाती है. यदि की जाती तो आज आदिवासी लोग इतने पिछड़े नहीं होते. इसाई प्रचारकों को दूसरो को प्रवचन सुनाने से पहले अपने अंदर झांक लेना चाहिए. धर्मावलम्बियों की संख्या बढ़ाने के बजाय पहले गांव-देहात के ईसाईयों की आर्थिक अवस्था को सुधारना चाहिए.

चर्चों के माध्यम से गरीब आदिवासियों के लिए पहली कक्षा से पोस्ट ग्रेजुएट तक मुफ्त शिक्षा के साथ-साथ मुफ्त छात्रावास और भोजन की व्यवस्था की जानी चाहिए, क्योंकि उच्च स्तर की शिक्षा से ही समाज के पिछड़ेपन और बुराईयों को दूर किया जा सकता है.

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-08-56/81-blog/3490-chirag-tale-andhera-janjwar-x-maas-day-special

सरना एक पौराणिक कथा..हिंदी में

आदिवासी समुदाय साल (सरजोम) के पेड़ को क्यों मानते हैं? क्यों इसका नामकरण सरजोम हुआ? सरना देशाउली या जाहेरतान क्या है? सरना धर्म की मान्यता, शुरुआत कैसे हुई इस पर प्रकाश डालता एक लेख :-
आदि काल में जब हमारे पूर्वज दुपुब दिशुम के धर्म दस्तूर के नियमों को बांध रहे थे, तो उन लोगों के विचारों में काफी भिन्नता थी। कहा जाता है की विचारों में भिन्नता के कारण वे साथ रहकर भी दूर थे, यानि उनके बीच दूरियां रही। उन्होंने इमली के पेड़ के नीचे बैठकर निर्णय लेना चाहा लेकिन इमली के पत्तों की पतझड़ की भांति विचार छिन्न भिन्न हो रहे थे। फिर महुआ के पेड़ के नीचे लोग बैठे पर महुआ के फूल के गिरने की भांति विचार बिखर जा रहे थे। तब यह सब पेड़ ही शायद सही नहीं है कहकर एक दिन वे लोग साल के पेड़ के नीचे चले गए। वहां बात तुरंत बन गई। सभी लोगों के विचार अचानक मिलने से ऐसा लगा मानो तपती गर्मी में किसी छाओं में ठन्डे पानी में घुसने पर एहसास होता है।
पर वोंगा बुरु (पूजा पाट) कैसे एवं किस पत्ते में करना है? आदि बातों में वे अटक गए। और सबकी बोलती एकबार बंद सी हो गई। एक बुजुर्ग ने कहा की ऐसे चुप रहने से तो कुछ नहीं मिलेगा, काम नहीं चलेगा। इसीलिए इसके लिए सिंहवोंगा(आदिवासियों/प्रकृति के सर्वोच्च देवता) से ही पूछा जाय। चूँकि यह शरीर और प्रकृति के सभी जीव जन्तु इन्ही की देन है। उस समय परंपरा में ये थी कि जब भी कोई काम शुरू किया जाता था तो उस दिशा में तीर(हो' में सर) को धनुष(हो में अ:सर) से छोड़ा जाता था. इसी परंपरा के अनुसार एक बुजुर्ग आदमी ने कहा ही हमलोग तीर(सर) मार कर पता लगते हैं. और यह तीर जिस पेड़ में लगेगा उसी के पेड़ के स्थान एवं पत्तों से पूजा पाट किया जाय। इस बात पर सभी राजी हो गए।
आदिवासियों ने सिंग्वोंगा, गोरम गैशिरी, मंग्बुरु देशाउली, पाऊणि, जयरा, गोवाँ वोंगा, आदि का नाम लेकर मन्नत मांगी कि अब आप लोग ही बताएं कि हमलोग कहाँ पर और कैसे आप सरीके देवी देवताओं कि पूजा उपासना करेंगे ? और ऐसी बातों(मन्त्रों) के साथ तीर को धनुष से छोड़ा गया। जंगलों से होते हुए तीर बहुत दूर घने पेड़ों के बीच गिरा. सब लोग तीर को खोजने निकले. लेकिन बहुत खोजने पर भी नहीं मिला। तीर के नहीं मिलने पर सभी अपने गाँव घर को वापस आ गए।
काफी दिन गुजरने के पश्चात् गाँव की बालाएं(लड़कियां) जंगल में फल फूल, लकड़ी, पत्ता आदि चुनने के लिए गई थी. इस क्रम में उनमे से एक बाला ने एक तीर को एक पेड़ में धंसा हुआ देख लिया। पेड़ में तीर को धंसा हुआ देख कर बालाएं अनायास ही कहने लगी(हो' में) "सर ना! सर" बई नेन दारू दो सरे:ए जोमा कडा!!! ।(हो में तीर को सर कहते हैं और ना आश्चर्य सूचक शब्द है)। यह पेड़ तो तीर को निगल गया है। अन्य बालाएं भी उसे देख कर बोलने लगी कि सही में इस पेड़ ने तीर को खा गया। इस अदभुत घटना कि जानकारी देने के लिए बालाएं तुरंत जंगल से वापस आकर अपने-अपने घरों में अपने से बड़ों को ये बातें बताई. इस बात को सुन कर गाँव के लोग उस जगह को गए। पेड़ के बीहड़ घने जंगल में तीर एक पेड़ में धंसा हुआ था। धंसा तीर को देख कर लोग अनायास ही बोल पड़े कि "सरि गे नेन दारू दो सरे:ए जोमा कडा"(सही में इस पेड़ ने तीर को खा लिया)। सरे:ए जोम केड दारू गे "सरजोम" को मेन कडा( उस पेड़ को तीर निगलने(सर जोम कडा) के कारण सरजोम नाम दिया गया. सभी बात विचार किये तो यह पता चला कि यह वही तीर था जो पूजा स्थल की खोज के लिए छोड़ा गया था. लोगों को सिंहवोंगा की इस अदभुत लीला को समझने में देर नहीं लगी कि हम जिस पूजा स्थल की खोज कर रहे थे, और कौन सा पेड़ के पत्तों से पूजा उपासना करेंगे का जवाब मिल गया. सिंग्वोंगा ने यह दिखाया कि सरजोम हमारा सबसे पवित्र पेड़ है, धार्मिक पेड़ है. यह इसी पेड़ की ताकत थी की विभिन्न पेड़ों की घनी आबादी के बावजूद मंत्र की ध्वनि आत्मसात करते हुए तीर को अपने पास खींच लिया और अपने अघोष में ले लिया था. तब से इसी के सागीर्द में आदिवासी समाज के पूजा पाट, उपासना एवं धार्मिक अनुष्ठान होते आ रहे हैं. इसी संस्कृति को आदिवासी समाज सबसे पवित्र एवं प्राकृतिक उपासना का मूल आधार मानता आया है. तीर को पेड़ में धंसा हुआ देख कर बालाएं जिस शब्द को उच्चारण की थी वह थी सरना और उस जगह को इसीलिए "सरना" कहा गया। इस घटना से पहले सरजोम यानि हिंदी में साल का नामकरण नहीं था, पर इस घटना के बाद इसे सरजोम यानि साल(हिंदी में) कहा गया.

http://hosamaj.blogspot.in/2011/11/blog-post_8815.html


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