Tuesday, 19 March 2013 10:32 |
अरविंद मोहन नीतीश कुमार के लिए इस रैली की अहमियत सिर्फ यह नहीं थी कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की मांग को एक बड़ा मुद््दा बनाया जाए। वे इसी बहाने बिहारी लोगों की अपनी अस्मिता का सवाल भी उठा रहे हैं। दिल्ली में रैली करके यहां रह रहे बिहारियों की भागीदारी का प्रयास करना उसी का नतीजा है। पर इस रैली के बहाने वे संगठन और अगले चुनाव की तैयारी का खेल भी खेल रहे हैं। यह मुद््दा किसने उठाया, किसने पहल की, इन बातों की परवाह न करते हुए सारा जिम्मा अपने एक प्रिय सांसद और उनकी टोली पर डाल कर वे संगठन के भीतर साफ संदेश दे रहे हैं। बाकी लोगों के लिए आदमी जुटाने का काम रैली की तैयारी भी है और अगले चुनाव के लिए टिकट का जुगाड़ भी। अगर भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ना पड़ा तो काफी सीटें खाली हैं, वरना ज्यादातर सांसदों के भी टिकट कटने के ही लक्षण हैं। अभी लगभग आधे सांसद किसी न किसी नोटिस पर हैं। रैली के लिए भले भाजपा से मुंबई की सभा रोकने को कहा गया हो या भाजपा ने खुद यह फैसला किया हो, पर जद (एकी) और कांग्रेस की नजदीकियां बढ़ने के संकेत देखने के लिए अब दूरबीन की जरूरत नहीं है। यह रैली जद (एकी) की थी और भाजपा का इससे कोई लेना-देना नहीं था, पर जिस तरह से वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने बजट भाषण में पिछडेÞ क्षेत्र के पैमाने ही बदलने के संकेत दिए और नीतीश कुमार ने बिना देर किए उनको बधाई दी उसे एक नए रिश्ते की शुरुआत भी माना जा रहा है। नीतीश कुमार यह घोषित कर चुके हैं कि जो कोई भी बिहार को विशेष पैकेज देगा उसे उनका बिना शर्त समर्थन मिलेगा। वैसे उन्होंने जब यह बयान दिया तो एक दिन पहले ही ममता बनर्जी ने यूपीए छोड़ा था। उस अवसर पर नीतीश कुमार ने उन्हें बधाई दी थी। दो दिन में ऐसे दो बयान देने के लिए उनकी आलोचना भी हुई थी। अब अगर कांग्रेस और जद (एकी) अपनी-अपनी राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से पास आते दिख रहे हैं तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है। नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी के बाद जद (एकी) के लिए अपना मुसलिम वोट बचाना मुश्किल हो जाएगा। और कांग्रेस प्रदेश में बिना सहारे के खड़ी भी नहीं हो सकती। और इस चक्कर में अगर बदहाल बिहार केंद्र से कोई पैकेज पाकर अपनी हालत सुधारने का प्रयास करे तो इसमें किसे शिकायत होगी। चुनावी गणित या सरकार के गठन में समर्थन का हिसाब ऐसे खेल कराते रहे हैं। बिहार आज जिस ऊंची विकास दर का दावा करता है वह तो किसी विशेष पैकेज की मांग का आधार नहीं बनती। लेकिन उसकी असली स्थिति किसी से छिपी नहीं है। 'शिक्षा मित्र' जैसी व्यवस्था के तहत अपना सारा कैरियर दांव पर लगाने वाले लोगों पर डंडे चलवाने का फैसला शान बढ़ाने के लिए तो नहीं ही लिया जा रहा है। आज भी विकास के लगभग सभी पैमानों पर बिहार सबसे पीछे ही है। अब यह जरूर है कि शिक्षक कम पैसे पर काम करे तो मुख्यमंत्री क्यों शान से रहे, अधिकारी क्यों नहीं कुछ सुविधाएं छोड़े। पर स्थिति बदलने के लिए जरूर बाहरी मदद और पैसों की जरूरत है। जब बिहार का शासन और उसके लोग अपना पिछड़ापन दूर करने के लिए तत्पर न लगें तब की बात और है। पर जब सरकार तत्पर दिखती है, अपने राजस्व की सीमा दिखाई देती है और बाहर से आने वाले पैसों का प्राय: सदुपयोग ही दिखता है तब उसे जरूर नया पैकेज मांगने का हक है। संयोग से वह अवसर बनता भी दिखता है, राजनीतिक स्थितियां भी उसका आधार तैयार कर रही हैं। जिस काम के लिए केंद्र का कोई जिम्मेवार नेता वक्त देने को तैयार नहीं था उसके लिए नियम बदलने की बात खुद से की जा रही है तो यह अच्छा ही लक्षण है। |
Wednesday, March 20, 2013
विशेष पैकेज की विशेष राजनीति
विशेष पैकेज की विशेष राजनीति
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