पलाश विश्वास
`हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!'शीर्षक आलेख मेरा आलेख छापते हुए हस्तक्षेप के संपादक अमलेंदु उपाध्याय ने खुली बहस आमंत्रित की है। इसका तहेदिल से स्वागत है।भारत में विचारधारा चाहे कोई भी हो, उसपर अमल होता नहीं है। चुनाव घोषणापत्रों में विचारधारा का हवाला देते हुए बड़ी बड़ी घोषणाएं होती हैं, पर उन घोषणाओं का कार्यान्वयन कभी नहीं होता।
विचारधारा के नाम पर राजनीतिक अराजनीतिक संगठन बन जाते हैं, उसेक नाम पर दुकानदारी चलती है।सत्तावर्ग अपनी सुविधा के मुताबिक विचारधारा का इस्तेमाल करता है।वामपंथी आंदोलनों में इस वर्चस्ववाद का सबसे विस्फोटक खुलासा होता रहा है। सत्ता और संसाधन एकत्र करने के लिए विचारधारा का बतौर साधन और माध्यम दुरुपयोग होता है।
इस बारे में हम लगातार लिखते रहे हैं। हमारे पाठकों को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है। हमने ज्ञानपीठ पुरस्कारविजेता साहित्यकार और अकार के संपादक गिरिराज किशोर के निर्देशानुसार इसी सिलसिले में अपने अध्ययन को विचारधारा की नियति शीर्षक पुस्तक में सिलसिलेवार लिखा भी है। इसकी पांडुलिपि करीब पांच छह सालों से गिरिराज जी के हवाले है। इसी तरह प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह के कहने पर मैंने रवींद्र का दलित विमर्श नामक एक पांडुलिपि तैयार की थी, जो उनके पास करीब दस साल से अप्रकाशित पड़ी हुई है।
भारतीय राजनीति पर हिंदुत्व और कारपोरेट राज का वर्चस्व इतना प्रबल है कि विचारधारा को राजनीति से जोड़कर हम शायद ही कोई विमर्श शुरु कर सकें। इस सिलसिले में इतना ही कहना काफी होगा कि अंबेडकरवादी आंदोलन का अंबेडकरवादी विचारधारा से जो विचलन हुआ है, उसका मूल कारण विचारधारा, संगठन और आंदोलन पर व्यक्ति का वर्चस्व है। यह बाकी विचारधाराओं के मामले में भी सच है।
कांग्रेस जिस गांधी और गांधीवादी विचारधारा के हवाले से राजकाज चलाता है, उसमें वंशवादी कारपोरेट वर्चस्व के काऱम और जो कुछ है, गांधीवाद नहीं है। इसीतरह वामपंथी आंदोलनों में मार्क्सवाद या माओवाद की जगह वर्चस्ववाद ही स्थानापन्न है।संघ परिवार की हिंदुत्व विचारधारा का भी व्यवहार में कारपोरेटीकरण हुआ है। कारपोरेट संस्कृति की राजनीति के लिए किसी एक व्यक्ति और पार्टी को दोषी ठहराना जायज तो है नहीं, उस विचारधारा की विवेचना भी इसी आधार पर नहीं की जा सकती।
बहरहाल यह हमारा विषय नहीं है। सत्ता में भागेदारी अंबेडकर विचारधारा में एक क्षेपक मात्र है, इसका मुख्य लक्ष्य कतई नहीं है। अंबेडकर एकमात्र भारतीय व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने अपने भोगे हुए अनुभव के तहत इतिहासबोध और अर्थशास्त्रीय अकादमिक दृष्टिकोण से भारतीयसामाजिक यथार्थ को संबोधित किया है।सहमति के इस प्रस्थानबिंदू के बिना इस संदर्भ में कोई रचनात्मक विमर्श हो ही नहीं सकता और न निनानब्वे फीसद जनता को कारपोरेट साम्राज्यवाद से मुक्त करने का कोई रास्ता तलाशा जा सकता है।
गांधी और लोहिया ने भी अपने तरीके से भारतीय यथार्थ को संबोधित करने की कोशिश की है, पर उनके ही चेलों ने सत्ता के दलदल में इन विचारधाराओं को विसर्जित कर दिया।
यही वक्तव्य अंबेडकरवादी विचारधारा के संदर्भ में भी प्रासंगिक है। उन्होंने जो शोषणमुक्त समता भ्रातृत्व और लोकतांत्रिक समाज, जिसमें सबके लिए समान अवसर हो, की परिकल्पना की, उससे वामपंथी वर्गविहीन शोषणमुक्त समाज की स्थापना में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। अंतर जो है, वह भारतीय यथार्थ के विश्लेषण को लेकर है।
भारतीय वामपंथी जाति व्यवस्था के यथार्थ को सिरे से खारिज करते रहे हैं, जबकि वामपंथी नेतृत्व पर शासक जातियों का ही वर्चस्व रहा है।यहां तक कि वामपंथी आंदोलन पर क्षेत्रीय वर्चस्व का इतना बोलबाला रहा कि गायपट्टी से वामपंथी नेतृत्व उभारकर भारतीय संदर्भ में वामपंथ को प्रासंगिक बनाये रखे जाने की फौरी जरुरत भी नजरअंदाज होती रही है, जिस वजह से आज भारत में वामपंथी हाशिये पर हैं। अब वामपंथ में जाति व क्षेत्रीय वर्चस्व को जस का तस जारी रखते हुए जाति विमर्श के बहाने अंबेडकर विचारधारा को ही खारिज करने का जो उद्यम है, उससे भारतीय वामपंथ के और ज्यादा अप्रासंगिक हो जाने का खतरा है।
शुरुआत में ही यहस्पष्ट करना जरुरी है कि आरएसएस और बामसेफ के प्रस्थानबिंदू और लक्ष्य कभी एक नही रहे। इस पर शायद बहस की जरुरत नहीं है। आरएसएस हिदूराष्ट्र के प्रस्थानबिंदू से चलकर कारपोरेट हिंदू राष्ट्र की लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। वहीं जातिविहीन समता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के आधार पर सामाजिक बदलाव के लिए चला बामसेफ आंदोलन व्यक्ति वर्चस्व के कारण विचलन का शिकार जरुर है, पर उसका लक्ष्य अस्पृश्यता और बहिस्कार आधारित समाज की स्थापना कभी नहीं है। हम नेतृत्व के आधार पर विभाजित भारतीय जनता को एकजुट करने में कभी कामयाब नहीं हो सकते। सामाजिक प्रतिबद्धता के आधार पर जीवन का सर्वस्व दांव पर लगा देने वाले कार्यकर्ताओं को हम अपने विमर्श के केंद्र में रखें तो वे चाहे कहीं भी, किसी के नेतृत्व में भी काम कर रहे हों, उनको एकताबद्ध करके ही हम नस्ली व वंशवादी वर्चस्व, क्रयशक्ति के वर्चस्व के विरुद्ध निनानब्वे फीसद की लड़ाई लड़ सकते हैं।
प्रिय मित्र और सोशल मीडिया में हमारे सेनापति अमलेंदु ने इस बहस को जारी रखने के लिए कुछ प्रश्न किये हैं, जो नीचे उल्लेखित हैं।इसीतरह हमारे मराठी पत्रकार बंधु मधु कांबले ने भी कुछ प्रश्न मराठी `दैनिक लोकसत्ता' में बामसेफ एकीकरण सम्मेलन के परसंग में प्रकाशित अपनी रपटों में उटाये है, जिनपर मराठी में बहस जारी है। जाति विमर्श सम्मेलन में भी कुछ प्रश्न उठाये गये हैं, जिनका विवेचन आवश्यक है।
य़ह गलत है कि अंबेडकर पूंजीवाद समर्थक थे या उन्होंने ब्राह्मणविद्वेष के कारण साम्राज्यवादी खतरों को नजरअंदाज किया।
मनमाड रेलवे मैंस कांफ्रेंस में उन्होंने भारतीय जनता के दो प्रमुख शत्रु चिन्हित किये थे, एक ब्राह्मणवाद और दूसरा पूंजीवाद । उन्होंने मजदूर आंदोलन की प्राथमिकताएं इसी आधार पर तय की थी।
अनुसूचित फेडरेशन बनाने से पहले उन्होंने श्रमजीवियों की पार्टी बनायी थी और ब्रिटिश सरकार के श्रममंत्री बतौर उन्होंने ही भारतीय श्रम कानून की बुनियाद रखी थी।
गोल्ड स्टैंडर्ड तो उन्होंने साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के प्रतिकार बतौर सुझाया था। बाबासाहेब के अर्थशास्त्र पर एडमिरल भागवत ने सिलसिलेवार लिखा है, पाठक उनका लिखा पढ़ लें तो तस्वीर साफ है जायेगी।
न सिर्फ विचारक बल्कि ब्रिटिश सरकार के मंत्री और स्वतंत्र भारत में कानून मंत्री, भारतीय संविधान के निर्माता बतौर उन्होंने संपत्ति और संसाधनों पर जनता के हकहकूक सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक रक्षाकवच की व्यवस्था की, नई आर्थिक नीतियों और कारपोरेट नीति निर्धारण, कानून संशोधन से जिनके उल्लंघन को मुक्त बाजार का मुख्य आधार बनाया गया है। इसी के तहत आदिवासियों के लिए पांचवी और छठीं अनुसूचियों के तहत उन्होंने जो संवैधानिक प्रावधान किये, वे कारपोरेट राज के प्रतिरोध के लिए अचूक हथियार हैं। ये संवैधानिक प्रावधान सचमुच लागू होते तो आज जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली का अभियान चल नहीं रहा होता और न आदिवासी अंचलों और देश के दूसरे भाग में माओवादी आंदोलन की चुनौती होती।
शास्त्रीय मार्क्सवाद पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध है, लेकिन वहां पूंजीवादी विकास के विरोध के जरिये सामंती उत्पादन व्यवस्था को पोषित करने का कोई आयोजन नहीं है। जाहिर है कि अंबेडकर ने भी पूंजीवादी विकास का विरोध नहीं किया तो सामंती सामाजिक व श्रम संबंधों के प्रतिकार बतौर, प्रतिरोध बतौर, पूंजी या पूंजीवाद के समर्थन में नहीं। वरना एकाधिकार पूंजीवाद या कारपोरेट साम्राज्यवाद के विरुद्ध संवैधानिक रक्षाकवच की व्यवस्था उन्होंने नहीं की होती।
अंबेडकर विचारधारा के साथ साथ उनके प्रशासकीय कामकाज और संविधान रचना में उनकी भूमिका की समग्रता से विचार किया जाये, तो हिंदू राष्ट्र के एजंडे और कारपोरेट साम्राज्यवाद के प्रतिरोध में लोक गणराज्य भारतीय लोकतंत्र और बहुलतावादी संस्कृति की धर्मनिरपेक्षता के तहत भारतीय संविधान की रक्षा करना हमारे संघर्ष का प्रस्थानबिंदू होना चाहिए. जिसकी हत्या हिंदुत्ववादी जायनवादी धर्मराष्ट्रवाद और मुक्त बाजार के कारपोरेट सम्राज्यवाद का प्रधान एजंडा है।
समग्र अंबेडकर विचारधारा, जाति अस्मिता नहीं, जाति उन्मूलन के उनके जीवन संघर्ष, महज सत्ता में भागेदारी और सत्ता दखल नहीं, शोषणमुक्त समता और सामाजिक न्याय आधारित लोक कल्याणकारी लोक गणराज्य के लक्ष्य के मद्देनजर न सिर्फ बहिस्कार के शिकार ओबीसी,अनुसूचित जाति और जनजाति, धर्मांतरित अल्पसंख्यक समुदाय बल्कि शरणार्थी और गंदी बस्तियों में रहनेवाले लोग, तमाम घुमंतू जातियों के लोग और कुल मिलाकर निनानब्वे फीसद भारतीय जनता जो एक फीसद की वंशवादी नस्ली वर्चस्व के लिए नियतिबद्ध हैं,उनके लिए बाबासाहेब के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
इसलिए अंबेडकरवादी हो या नहीं, बहिस्कृत समुदायों से हो या नहीं, अगर आप लोकतांत्रिक व्यवस्था और धर्मनिरपेक्षता में आस्था रखते हैं, तो अंबेडकर आपके लिए हर मायने में प्रासंगिक हैं और उन्हीं के रास्ते हम सामाजिक व उत्पादक शक्तियों का सं.युक्त मोर्चा बनाकर हिंदुत्व व कारपोरेट साम्राज्यवाद दोनों का प्रतिरोध कर सकते हैं।
विचारधारा के तहत आंदोलन पर व्यक्ति , वंश . क्षेत्रीय व समुदाय विशेष के वर्चस्व को खत्म करना इसके लिए बेहद जरुरी है। विचारधारा, आंदोलन और संगठन को संस्थागत व लोकतांत्रिक बनाये जाने की जरुरत है। बामसेफ एकीकरण अभियान इसी दिशा में सार्थक पहल है जो सिर्फ अंबेडकरवादियों को ही नहीं, बल्कि कारपोरेट साम्राज्यवाद व हिंदुत्व के एजंडे के प्रतिरोध के लिए समस्त धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक ताकतों के संयुक्त मोर्चा निर्माण का प्रस्थानबिंदु है। पर हमारे सोशल मीडिया ने इस सकारात्मक पहल को अंबेडकर के प्रति अपने अपने पूर्वग्रह के कारण नजरअंदाज किया, जो आत्मघाती है।
इसके विपरीत इसकी काट के लिए कारपोरेट माडिया ने अपने कतरीके से भ्रामक प्रचार अभियान प्रारंभ से ही यथारीति चालू कर दिया है।
अमलेंदु के प्रश्न इस प्रकार हैः
'जाति प्रश्न और मार्क्सवाद' विषय पर चंडीगढ़ के भकना भवन में सम्पन्न हुये चतुर्थ अरविंद स्मृति संगोष्ठी की हस्तक्षेप पर प्रकाशित रिपोर्ट्स के प्रत्युत्तर में हमारे सम्मानित लेखक पलाश विश्वास जी का यह आलेख प्राप्त हुआ है। उनके इस आरोप पर कि हम एक पक्ष की ही रिपोर्ट्स दे रहे हैं, (हालाँकि जिस संगोष्ठी की रिपोर्ट्स दी गयीं उनमें प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े, प्रोफेसर तुलसीराम और प्रोफेसर लाल्टू व नेपाल दलित मुक्ति मोर्चा के तिलक परिहार जैसे बड़े दलित चिंतक शामिल थे) हमने उनसे (पलाश जी) अनुरोध किया था कि उक्त संगोष्ठी में जो कुछ कहा गया है उस पर अपना पक्ष रखें और यह बतायें कि डॉ. अंबेडकर का मुक्ति का रास्ता आखिर था क्या और उनके अनुयायियों ने उसकी दिशा में क्या उल्लेखनीय कार्य किया।
मान लिया कि डॉ. अंबेडकर को खारिज करने का षडयंत्र चल रहा है तो ऐसे में क्या अंबेडकरवादियों का दायित्व नहीं बनता है कि वह ब्राह्मणवादी तरीके से उनकी पूजा के टोने-टोटके से बाहर निकलकर लोगों के सामने तथ्य रखें कि डॉ. अंबेडकर का मुक्ति का रास्ता यह था। लेकिन किसी भी अंबेडकरवादी ने सिर्फ उनको पूजने और ब्राह्मणवाद को कोसने की परम्परा के निर्वाह के अलावा कभी यह नहीं बताया कि डॉ. अंबेडकर का नुस्खा आखिर है क्या।
हम यह भी जानना चाहते हैं कि आखिर बामसेफ और आरएसएस में लोकेशन के अलावा लक्ष्य में मूलभूत अंतर क्या है।
पलाश जी भी "साम्राज्यवादी हिन्दुत्व का यह वामपंथी चेहरा बेनकाब कर देने का वक्त है" तो रेखांकित करते हैं लेकिन डॉ. अंबेडकर की सियासी विरासत "बहुजन समाज पार्टी" की बहन मायावती और आरपीआई के अठावले के "नीले कॉरपोरेटी हिन्दुत्व" पर मौन साध लेते हैं।
हम चाहते हैं पलाश जी ही इस "नीले कॉरपोरेटी हिन्दुत्व" पर भी थोड़ा प्रकाश डालें। लगे हाथ एफडीआई पर डॉ. अंबेडकर के चेलों पर भी प्रकाश डालें। "हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है" इस संकट में अंबेडकरवादियों की क्या भूमिका है, इस पर भी प्रकाश डालें। मायावती और मोदी में क्या एकरूपता है, उम्मीद है अगली कड़ी में पलाश जी इस पर भी प्रकाश डालेंगे।
बहरहाल इस विषय पर बहस का स्वागत है। आप भी कुछ कहना चाहें तो हमें
amalendu.upadhyay@gmail.com
पर मेल कर सकते हैं। पलाश जी भी आगे जो लिखेंगे उसे आप हस्तक्षेप पर पढ़ सकेंगे।
-संपादक हस्तक्षेप
इन सवालों का जवाब अकेले मैं नही दे सकता । मैं एक सामान्य नागरिक हूं और पढ़ता लिखता हूं। बेहतर हो कि इन प्रश्नों का जवाब हम सामूहिक रुप से और ईमानदारी से सोचें क्योकि ये प्रश्न भारतीय लोक गणराज्य के अस्तित्व के लिए अतिशय महत्व पूर्ण हैं।इस सिलसिले में इतिहासकार राम चंद्ग गुहा का `आउटलुक' व अन्यत्र लिखा लेख भी पढ़ लें तो बेहतर। अमलेंदु ने जिन लोगों के नाम लिखे हैं , वे सभी घोषित प्रतिष्ठित विद्वतजन हैं, उनकी राय सिर माथे। पर हमारे जैसे सामान्य नागरिक का भी सुना जाये तो बेहतर।
हमारा तो निवेदन है कि प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट खसोट पर अरुंधति राय और अन्य लोगों, जैसे राम पुनियानी और असगर अली इंजीनियर, रशीदा बी, रोहित प्रजापति जैसों का लिखा भी पढ़ लें तो हमें कोई उचित मार्ग मिलेगा। हम कोई राजनेता नहीं हैं, पर भारतीय जनगण के हकहकूक की लड़ाई में शामिल होने की वजह से लोकतांत्रिक विमर्श के जरिये ही आगे का रास्ता बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं।
भीमराव आम्बेडकर के चिन्तन और दृष्टि को समझने के लिये कुछ बिन्दु ध्यान में रखना जरुरी है । सबसे पहले तो यह कि वे अपने चिन्तन में कहीं भी दुराग्रही नहीं हैं । उनके चिन्तन में जड़ता नहीं है । वे निरन्तर अपने अनुभव और ज्ञान से सीखते रहे। उनका जीवन दुख, अकेलेपन और अपमान से भरा हुआ था, परंतु उन्होंने चिंतन से प्रतिरोध किया। बाह्य रूप से कठोर, संतप्त, क्रोधी दिखाई देने वाले व्यक्ति का अंतर्मन दया, सहानुभूति, न्यायप्रियता का सागर था।उन्होंने हमेशा अकादमिक पद्धति का अनुसरण किया। वे भा।ण नहीं देते थे। सुचिंतित लिखा हुआ प्रतिवेदन का पाठ करते थे। जाति उन्मूलन इसीतरह का एक पाठ है। वे ब्राह्मणवाद के विरुद्ध थे , लेकिन उनका ब्राह्णणों के खिलाफ विद्वेष एक अपप्रचार है। हमारे लिए विडंबना यह है कि मह विदेशी विचारधाराओं का तो सिलसिलेवार अधिययन करते हैं , पर गांधी, अंबेडकर या लोहियो को पढ़े बिना उनके आलोचक बन जाते हैं। दुर्भाग्य से लंबे अरसे तक भारतीय विचारधाराएं वामपंथी चिंतन के लिए निषिद्ध रही है, जसके परिणामस्वरुप सर्वमान्य विद्वतजन, जिनमें घोषित दलित चिंतक भी हैं, अंबेडकर को गैरप्रासंगिक घोषित करने लगे हैं।
अंबेटकर ने भाषा का अपप्रयोग किया हो कभी. मुझे ऐसा कोई वाकया मालूम नहीं है। आपको मालूम हो तो बतायें, अंबेडकरवादियों के लिए भाषा का संयम अनिवार्य है। वर्चस्ववादियों और बहिस्कारवादियों की तरह घृणा अभियान से अंबेडकर के हर अनुयायी को बचना होगा। तभी हम भारती य समाज को जोड़ सकेंगे, जिसे वर्चस्ववाद ले खंड खंड में बांटकर अपना राज कायम रखा है।
आनंद तेलतुम्बडे का मत है कि निजी तौर मुझे नहीं लगता कि हिंदुस्तान में मार्क्स या आम्बेडकर किसी एक को छोड़कर या कुछ लोगों की `मार्क्स बनाम आम्बेडकर` जैसी ज़िद पर चलकर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी जा सकती है। वैसे भी सामाजिक न्याय की लड़ाई एक खुला हुआ क्षेत्र है जिसमें बहुत सारे छोड़ दिए गए सवालों को शामिल करना जरूरी है। मसलन, यदि औरतों के सवाल की दोनों ही धाराओं (मार्क्स और आम्बेडकर पर दावा जताने वालों) ने काफी हद तक अनदेखी की है तो इस गलती के लिए मार्क्स या आम्बेडकर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। आम्बेडकर और मार्क्स पर दावा जताने वाली धाराओं के समझदार लोग प्रायः इस गैप को भरने की जरूरतों पर बल भी देते हैं लेकिन बहुत सारी वजहों से मामला या तो आरोप-प्रत्यारोप में या गलती मानने-मनवाने तक सीमित रह जाता है। हमारे प्रिय फिल्मकार आनंद पटवर्धन ने तो एक विचारोत्तेजक फिल्म जयभीम कामरेड तक बना दी।
हमारा तो मानना है कि भारतीय यथार्थ का वस्तुवादी विश्लेशण करने कीस्थिति में किसी भी वामपंथी के अंबेडकरवादी होने या किसी भी अंबेडकरवादी के वामपंथी बनने में कोई दिक्कत नहीं है, जो इसवक्त एक दूसरे के शत्रु बनकर हिंदू राष्ट्र का रकारपोरेट राज के तिलिस्म में फंसे हुए हैं।
आज बस, यहीं तक।
आगे बहस के लिए आप कृपया संबंधित सामग्री देख लें। हमें भी अंबेडकर को नये सिरे से पढ़ने की जरुरत है।
अंबेडकर की एक बार फिर हत्या की तैयारी
Monday, 18 March 2013 10:06 | Written by Palash Biswas
http://journalistcommunity.com/index.php?option=com_content&view=article&id=2898:2013-03-18-04-39-57&catid=34:articles&Itemid=54
आदिवासी को गुस्सा क्यों आता है? (1)
Sunday, 17 March 2013 08:05 | Written by Palash Biswas
http://journalistcommunity.com/index.php?option=com_content&view=article&id=2889:-1&catid=34:articles&Itemid=54
आदिवासी को गुस्सा क्यों आता है? (2)
Sunday, 17 March 2013 08:34 | Written by Palash Biswas
http://journalistcommunity.com/index.php?option=com_content&view=article&id=2890:-2&catid=34:articles&Itemid=54
आदिवासी को गुस्सा क्यों आता है? (3)
Sunday, 17 March 2013 08:40 | Written by Palash Biswas
http://journalistcommunity.com/index.php?option=com_content&view=article&id=2891:-3&catid=34:articles&Itemid=54
आदिवासी को गुस्सा क्यों आता है ?
SUNDAY, 17 MARCH 2013 03:12
http://www.bahujanindia.in/index.php?option=com_content&view=article&id=13164:2013-03-17-03-18-06&catid=130:2011-11-30-09-49-15&Itemid=535
हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!
http://hastakshep.com/?p=30615
पलाश विश्वास
सबसे बुरा दौर तो अब शुरु हुआ है! इसके विपरीत वैश्विक रेटिंग एजेंसी फिच की भारतीय इकाई इंडिया रेटिंग्स का कहना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बुरा दौर खत्म हो चुका है, लेकिन आने वाला समय अब भी अनिश्चितताओं से भरा है। किसी अनहोनी से बचने के लिए गुणवत्तापूर्ण राजकोषीय उपाय किये जाने की आवश्यकता है। भारत सरकार की अपनी कोई वित्तीय नीति है नहीं। कॉरपोरेट नीति निर्धारण के लिए रेटिंग एजंसियों की रपट का बतौर छतरी इस्तेमाल करने का रिवाज बन गया है। वित्तीय घाटा को आर्थिक संकट का पर्याय बताया जाता है और विकास दौर को समृद्धि का। पर इन आंकड़ों से निनाब्वे फीसदी जनता का कोई लेना देना नहीं है।
दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों से यह आर्थिक संकट दूर होने से तो रहा। आधार योजना को भी अब किनारे करके अब एक अरब डॉलर के निवेश से नई पहचान योजना आरआईसी कारपोरेट हितों के मुताबिक कॉरपोरेट द्वारा संचालित शुरू की जाने वाली है। हिन्दुत्व के एजण्डे के प्रतिरोध के लिये जब अंबेडकर विचारधारा के तहत बहिष्कृत बहुसंख्यक जनता को गोलबन्द करना सम्भव है क्योंकि इसके जरिये उत्पादक व सामाजिक शक्तियों के धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक मोर्चा बनाया जा सकता है। अंबेडकर के प्रयास से जो गोल्ड स्टैण्डर्ड चालू हुआ उसे खत्म करके भारतीय शासक वर्ग ने जो डॉलर की नियति के साथ भारत की अर्थ व्यवस्था को जोड़ा है, वही आर्थिक संकट की जड़ है।
वैश्विक मुक्त बाजार के संकट को भारतीय जनता का संकट बताते हुए समृद्धि के रिसाव को भारतीय समावेशी विकास बनाने का सबसे मुखर विरोध करने वाले वामपंथी अब अंबेडकर और उनकी विचारधारा को खारिज करने में लगे हैं। जनसंहार की नीतियों का विरोध करने का नारा लगाने वाले इन लोगों ने उदारीकरण के दो दशक जनता को गुमराह करके सत्ता वर्ग के हितों के मुताबिक संविधान की हत्या में पूरा सहयोग करके प्रतिरोध की हर सम्भावना को खराब करने में बेकार बिता दिये। अब जब हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है तब ये अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करने की तैयारी में है। इससे बड़ा संकट क्या हो सकता है?
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।
उनकी दलील है कि ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये। दलित उत्पीडऩ को लेकर अंबेडकर की पीड़ा सच्ची थी लेकिन केवल पीड़ा से कोई मुक्ति का दर्शन नहीं बन सकता। तो साम्राज्यवादी खतरे को आपने कैसे पहचाना, कोई उनसे पूछे। डॉ. अंबेडकर ने ही प्रॉब्लम ऑफ रूपी के जरिये सबसे पहले साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था की चीरफाड़ की। भारतीय वामपंथी तो अमेरिका और इजराइल के नेतृत्व में पारमाणविक जायनवादी सैन्य गठबंधन बनने तक सत्ता वर्ग को पूरा समर्थन देते रहे, भारत अमेरिका परमाणु संधि का कार्यान्वयन सुनिश्चित करने तक। इन्हें अंबेडकर की आलोचना करने का क्या हक है?
यह जाति विमर्श तब शुरु हुआ जबकि अंबेडकरवादी आन्दोलन की प्रक्रिया शुरु हो चुकी है। इससे इसकी कार्ययोजना और एजेण्डा दोनों साफ हैं। साम्राज्यवादी हिन्दुत्व का यह वामपंथी चेहरा बेनकाब कर देने का वक्त है।
देश की संपत्ति और प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के हक हकूक के लिए बाबासाहेब ने जो संवैधानिक रक्षा कवच तैयार किये, उसे ध्वस्त करने में वामपंथी भी तो लगातार सत्ता वर्ग का साथ देते रहे। मरीचझांपी नरसंहार प्रकरण से साफ जाहिर है कि उनका जाति विमर्श दरअसल ब्राह्मणवादी वर्चस्व बनाये रखने और मनुस्मृति कॉरपोरेट व्यवस्था बनाये रखने के लिये है।
कामरेड ज्योति बसु ने अपने लंबे राजकाज के दौरान बाकी देश में मंडल कमीशन लागू करने का शोर मचाने के बावजूद बंगाल में आधी आबादी ओबीसी होने के बावजूद यहाँ ओबीसी के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं किया। पैंतीस साल तक बंगाल के वाम शासन में ब्राह्मणमोर्चा का ही राज रहा। यहीं नहीं ब्राह्मणवादी बंगाली वर्चस्व के जरिये भारतीय वामपंथी आंदोलन को तहस नहस कर दिया गया।
आदिवासियों के हक-हकूक के बारे में उनकी ही नीतियों की वजह से नक्सलबाड़ी जनविद्रोह हुआ। वे ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने को तैयार सिर्फ इसलिए नहीं हुये कि केन्द्र में उनकी सरकार होने पर भूमि सुधार लागू करना उनकी जिम्मेवारी होती और भूमि सुधार लागू नहीं करना चाहते।
य़हीं नहीं, बंगाल और केरल के ब्राहण वामपंथी नेताओं ने पार्टी नेतृत्व में सवर्ण असवर्ण दूसरी जातियों को कोई प्रतिनिधित्व देने से परहेज किया। स्त्रियों को अधिकार नहीं दिये। वृंदा कारत और सुभाषिणी अली अपवाद हैं।
लेकिन केरल की गौरी अम्मा के साथ जो सलूक किया, उसका क्या?
आदिवासियों के हक हकूक के लिए भारतीय वामपंथियों ने संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूचियों को लागू करने के लिये कौन सा राष्ट्र व्यापी आन्दोलन किया अगर करते तो आज देश को माओवाद की जरूरत ही नहीं होती। यह जाति विमर्श अंबेडकरवादी आन्दोलन के विरुद्ध है और कुछ भी नहीं। जबकि साम्राज्यावादी हिन्दुत्ववादी जायनवादी मुक्त बाजार व्यवव्था के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक अंबेडकरवादी आंदोलन के सिवाय कोई दूसरा विकल्प है ही नहीं।
अभी तो हम इस जाति विमर्श में क्या हुआ, इसी की जानकारी देने के लिये इतना भर लिख रहे हैं और पहले उनकी दलीलों को रख रहे हैं। बाद में सिलसिलेवार उनके हर तर्क का यथोचित जवाब दिया जायेगा।
यह जाति विमर्श अनुष्ठान जयपुर साहित्य सम्मलन के आरक्षणविरोधी मंच बन जाने जैसा वाकया है। जहाँ अवधारणा पेश करने की यह बानगी देखिये -
आज सामन्ती शक्तियाँ नहीं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था जाति प्रथा को जिन्दा रखने के लिये जिम्मेदार है और यह मेहनतकश जनता को बाँटने का एक शक्तिशाली राजनीतिक उपकरण बन चुकी है। इसलिये यह सोचना गलत है कि पूँजीवाद और औद्योगिक विकास के साथ जाति व्यवस्था स्वयं समाप्त हो जाएगी।
चौथे दिन आज यहाँ पेपर प्रस्तुत करते हुए 'आह्वान' पत्रिका के सम्पादक अभिनव सिन्हा ने यह बात कही। 'जाति व्यवस्था सम्बंधी इतिहास लेखन' पर केंद्रित अपने आलेख में उन्होंने जातिप्रथा के उद्भव और विकास के बारे में सभी प्रमुख इतिहासकारों के विचारों की विवेचना करते हुए बताया कि जाति कभी भी एक जड़ व्यवस्था नहीं रही है, बल्कि उत्पादन सम्बंधों में बदलाव के साथ इसके स्वरूप और विशेषताओं में भी बदलाव आता रहा है। उन्होंने कहा कि प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था का उदय अभिन्न रूप से समाज में वर्गों, राज्य और पितृसत्ता के उदय से जुड़ा हुआ है। अपने उद्भव से लेकर आज तक जाति विचारधारा शासक वर्गों के हाथ में एक मजबूत औजार रही है। यह गरीब मेहनतकश आबादी को पराधीन रखती है और उन्हें अलग-अलग जातियों में बाँट देती है। पूँजीवाद ने जातिगत श्रम विभाजन और खान-पान की वर्जनाओं को तोड़ दिया है लेकिन सजातीय विवाह की प्रथा को कायम रखा है,क्योंकि पूँजीवाद से इसका कोई बैर नहीं है।
कहा जा रहा है कि जाति व्यवस्था तथा छुआछूत के विरुद्ध अम्बेडकर के अथक संघर्ष से दलितों में नयी जागृति आयी लेकिन वह दलित मुक्ति की कोई समग्र परियोजना नहीं दे सके और अम्बेडकर के दार्शनिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक चिन्तन में से दलित मुक्ति की कोई राह निकलती नज़र नहीं आती। इसलिए भारत में दलित मुक्ति तथा जाति व्यवस्था के नाश के संघर्ष को अंजाम तक पहुँचाने के लिए अम्बेडकर से बढ़कर रास्ता तलाशना होगा।
'जातिप्रश्न और मार्क्सवाद' विषय पर भकना भवन में जारी अरविंद स्मृति संगोष्ठी के पाँचवें और अन्तिम दिन आज यहाँ 'अम्बेडकरवाद और दलित मुक्ति' विषय पर अपने पेपर में पंजाबी पत्रिका 'प्रतिबद्ध' के संपादक सुखविन्दर ने कहा कि जाति प्रश्न के सन्दर्भ में अम्बेडकर तथा उनके नेतृत्व वाले समाज-सुधार आन्दोलन की ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील भूमिका को स्वीकार करते हुये भी, उनकी सीमाओं से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता।
उन्होंने कहा कि आज मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद को मिलाने की बातें हो रही हैं लेकिन वास्तव में इन दोनों विचारधाराओं में बुनियादी अन्तर है। मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष के ज़रिये समाज में से वर्ग विभेदों को मिटाने, मनुष्य के हाथों मनुष्य के शोषण का अन्त करने तथा समाजवाद को वर्गविहीन समाज ले जाने का रास्ता पेश करता है जबकि अम्बेडकर की राजनीति शोषण-उत्पीड़न की बुनियाद पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था का अंग बनकर इसी व्यवस्था में कुछ सुधारों से आगे नहीं जाती है। सुखविन्दर ने अपने विस्तृत आलेख में अम्बेडकर के दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र और इतिहास सम्बंधी उनके विचारों का विश्लेषण प्रस्तुत करते हुये बताया कि दलितों में चेतना जगाने के उनके योगदान को स्वीकार करने के साथ ही उनके रास्ते की सीमाओं को भी स्वीकारना होगा।
उन्होंने कहा कि दलितों को भगत सिंह के इस आह्वान को याद करना होगा कि धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं होगा, सामाजिक आन्दोलन से क्रान्ति पैदा करने तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति के लिए कमर कस लेनी होगी।
प्रसिद्ध लेखक और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. तुलसीराम ने कहा कि अम्बेडकर का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने जाति व्यवस्था की दैवी मान्यता पर चोट की। सुखविन्दर के पेपर की आलोचना करते हुये उन्होंने कहा कि बुद्ध के दर्शन के क्रान्तिकारी योगदान की इसमें उपेक्षा की गयी है। अम्बेडकर को उनके ऐतिहासिक काल की सीमाओं को ध्यान में रखकर ही समझा जा सकता है। उन्होंने हिन्दू धर्म की विकृतियों की विस्तार से चर्चा करते हुये कहा कि जाति प्रथा का विरोध करने के ही कारण ब्राह्मणवादियों ने बौद्ध धर्म को खत्म कर दिया। डॉ. तुलसीराम ने कहा कि अम्बेडकर ने राजकीय पूँजीवाद के रूप में जो आर्थिक मॉडल दिया वह रूस में मौजूद राजकीय समाजवाद से कम प्रगतिशील नहीं था।
आह्वान पत्रिका के सम्पादक अभिनव ने प्रो. तुलसीराम के वक्तव्य की अनेक बातों से असहमति प्रकट करते हुये कहा कि जाति व्यवस्था के उद्भव के बारे में उनकी सोच तथ्यों से मेल नहीं खाती। अम्बेडकर ने जाति प्रथा के खिलाफ अथक संघर्ष किया लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि उनके पास दलित मुक्ति का सही रास्ता भी था। समस्या का सही निवारण वही कर सकता है जिसके पास कारण की सही समझ हो। इसका हमें अम्बेडकर में अभाव दिखता है। उन्होंने डॉ. तुलसीराम के इस विचार का तीव्र खण्डन किया कि सामाजिक आन्दोलनों को राजनीतिक आन्दोलन पर वरीयता देनी होगी। सामाजिक आन्दोलन सत्ता के सवाल को दरकिनार करके सुधार के दायरे में सीमित रहते हैं।
बी.आर. अम्बेडकर कालेज, दिल्ली के प्रशांत गुप्ता ने अस्मितावादी राजनीति पर अपना आलेख प्रस्तुत किया। कल देर रात तक चले सत्र और आज के सत्र में हुई सघन चर्चाओं में निनु चपागाईं, शिवानी, असित दास, शब्दीश, तपीश मैन्दोला, डा. सुखदेव, कश्मीर सिंह, सत्यम आदि ने भाग लिया।
दिल्ली विश्वविद्यालय की शिवानी ने 'जाति, वर्ग और अस्मितावादी राजनीति' विषय पर और सोशल साइंसेज स्टडीज़ सेंटर, कोलकाता के प्रस्कण्व सिन्हाराय ने 'पश्चिम बंगाल में जाति और राजनीति: वाम मोर्चे का बदलता चेहरा' विषय पर पेपर प्रस्तुत किए।
शिवानी ने अपने पेपर में कहा कि पहचान की राजनीति जनता के संघर्षों को खण्ड-खण्ड में बांटकर पूँजीवादी व्यवस्था की ही सेवा कर रही है। जातीय पहचान को बढ़ावा देने की राजनीति ने दलित जातियों और उपजातियों के बीच भी भ्रातृघाती झगड़ों को जन्म दिया है। जाति,जेंडर,राष्ट्रीयता आदि विभिन्न अस्मिताओं के शोषण-उत्पीडऩ को खत्म करने की लड़ाई को साझा दुश्मन पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की ओर मोडऩी होगी और यह काम वर्गीय एकजुटता से ही हो सकता है।
श्री सिन्हा राय ने बंगाल में नाम शूद्रों से निकले मतुआ समुदाय की राजनीतिक भूमिका की चर्चा करते हुए कहा कि वाम मोर्चे ने 1947 के बाद मतुआ शरणार्थियों की मांगों को मजबूती से उठाया था लेकिन बाद में वाम मोर्चे पर हावी उच्च जातीय भद्रलोक नेतृत्व ने न केवल उनकी उपेक्षा की बल्कि मतुआ जाति का दमन भी किया। पिछले चुनावों में कई इलाकों में वाम मोर्चे की हार का यह भी कारण था।
पर्चों पर जारी बहस में हस्तक्षेप करते हुए सुखविन्दर ने कहा कि जाति व्यवस्था को सामंती व्यवस्था के साथ जोडक़र देखने से न तो दुश्मन की सही पहचान हो सकती है और न ही संघर्ष के सही नारे तय हो सकते हैं। वास्तविकता यह है कि आज भारत में दलितों के शोषण का आधार पूँजीवादी व्यवस्था है। जमीन जोतने वाले को देने का नारा आज अप्रासंगिक हो चुका है।
लेखक शब्दीश ने कहा कि ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये। दलित उत्पीडऩ को लेकर अंबेडकर की पीड़ा सच्ची थी लेकिन केवल पीड़ा से कोई मुक्ति का दर्शन नहीं बन सकता।
संहति से जुड़े शोधकर्ता एवं एक्टिविस्ट असित दास ने अपने आलेख पर उठे सवालों का जवाब देते हुये कहा कि यह सोचना होगा कि दमन-उत्पीडऩ के खिलाफ दबे हुये गुस्से को हम वर्गीय दृष्टिकोण किस तरह से दे सकते हैं।
नेपाल राष्ट्रीय दलित मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष तिलक परिहार ने कहा कि साम्राज्यवाद आज भी फूट डालो राज करो की नीति के तहत पूरी दुनिया में अस्मिताओं की राजनीति को बढ़ावा दे रहा है। नेपाल में दलितों के बीच हजारों एनजीओ सक्रिय हैं जिन्हें अरबों डॉलर की फण्डिंग मिलती है लेकिन वहाँ अधिकाँश दलित कम्युनिस्टों के साथ खड़े हैं।
बातचीत में आईआईटी,हैदराबाद के प्रोफेसर एवं कवि लाल्टू,कोलकाता से आये अनन्त आचार्य, मुम्बई से आये लेखक पत्रकार प्रभाकर,नेपाल से आयीं संतोषी विश्वकर्मा,डॉ.दर्शन खेड़ी,बेबी कुमारी, संदीप,लश्कर सिंह आदि ने भी बहस में हस्तक्षेप किया। बहस इतनी सरगर्म रही कि कल सत्र का समय खत्म हो जाने के बाद भी रात ग्यारह बजे तक चर्चा जारी रही।
आज के सत्र की अध्यक्षता नेपाल के प्रसिद्ध साहित्यकार निनु चपागाईं,वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता कश्मीर सिंह और'प्रतिबद्ध' के संपादक सुखविंदर ने की। मंच संचालन नौजवान भारत सभा के तपीश मैंदोला ने किया।
जाति प्रश्न और मार्क्सवाद' विषय पर भकना भवन में सम्पन्न अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट्स यहाँ देखें –
- because of the hatred for the Brahmanism, Ambedkar failed to understand the conspiracy of colonialism
- All experiments of Dalit emancipation by Dr. Ambedkar ended in a 'grand failure'
- Ambedkar's politics does not move an inch beyond the policy of some reforms
- दलित मुक्ति को अंजाम तक पहुँचाने के लिए अम्बेडकर से आगे जाना होगा
- ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये
बाबा साहब का रास्ता और बामसेफ का विचलन
बहिष्कृतों, बहुजनों का नेतृत्व करने वाले नेताओं की जान तोते (CBI) में है?
अंबेडकर के सारे प्रयोग एक ''महान विफलता'' में समाप्त हुए – तेलतुंबड़े
Friday, 15 March 2013 16:32 | Written by Bureau
क्रान्ति के बिना दलित मुक्ति नहीं हो सकती और दलितों की व्यापक भागीदारी के बिना भारत में क्रान्ति सम्भव नहीं...
चर्चित लेखक व विचारक डॉ.आनन्द तेलतुंबड़े ने आज यहाँ कहा कि दलित मुक्ति के लिये डॉ.अंबेडकर के सारे प्रयोग एक ''महान विफलता'' में समाप्त हुये और जाति प्रथा के विनाश के लिये आन्दोलन को उनसे आगे जाना होगा।
'जाति प्रश्न और मार्क्सवाद' विषय पर भकना भवन में चल रही अरविन्द स्मृति संगोष्ठी के तीसरे दिन अपना वक्तव्य रखते हुये डॉ.तेलतुंबड़े ने कहा कि आरक्षण की नीति से आज तक सिर्फ 10 प्रतिशत दलितों को ही फायदा हुआ है। इसका एक कारण यह भी है कि डॉ.अंबेडकर ने आरक्षण की नीति को सही ढंग से सूत्रबद्ध नहीं किया। उन्होंने कहा कि क्रान्ति के बिना दलित मुक्ति नहीं हो सकती और दलितों की व्यापक भागीदारी के बिना भारत में क्रान्ति सम्भव नहीं।
डॉ.तेलतुंबड़े ने कहा कि भारत के वामपन्थियों ने मार्क्सवाद को कठमुल्लावादी तरीके से लागू किया है जिससे वे जाति समस्या को न तो ठीक से समझ सके और न ही इससे लड़ने की सही रणनीति विकसित कर सके। संगोष्ठी में प्रस्तुत आधार पत्र की बहुत सी बातों से सहमति जताते हुये भी उन्होंने कहा कि अंबेडकर, फुले या पेरियार के योगदान को खारिज करके सामाजिक क्रान्ति को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।
उन्होंने कहा कि अंबेडकर ने मार्क्सवाद का गहन अध्ययन नहीं किया था, लेकिन उनके मन में उसके प्रति गहरा आकर्षण था। हमें मार्क्स और अंबेडकर आंदोलनों को लगातार एक-दूसरे के करीब लाने के बारे में सोचना होगा। इसके लिये सबसेजरूरी है कि दलितों पर अत्याचार की हर घटना पर कम्युनिस्ट उनके साथ खड़े हों।
'आह्वान' पत्रिका के संपादक अभिनव ने डॉ.अंबेडकर के वैचारिक प्रेरणा स्रोत अमेरिकी दार्शनिक जॉन डेवी के विचारों की विस्तृत आलोचना प्रस्तुत करते हुये कहा कि वे उत्पीडि़त वर्गों की मुक्ति का कोई मुकम्मल रास्ता नहीं बताते। वे 'एफर्मिटिव एक्शन' के रूप में राज्य द्वारा कुछ रियायतों और कल्याणकारी कदमों से आगे नहीं जाते। यही बात हम अंबेडकर के विचारों में भी पाते हैं। आनन्द तेलतुंबड़े के वक्तव्य की अनेक बातों से असहमति व्यक्त करते हुये अभिनव ने कहा कि अंबेडकर के सभी प्रयोगों की विफलता का कारण हमें उनके दर्शन में तलाशना होगा। सामाजिक क्रान्ति के सिद्धान्त की उपेक्षा करके अंबेडकर केवल व्यवहार के धरातल पर प्रयोग करते रहे और उनमें भी सुसंगति का अभाव था।
अभिनव ने कहा कि दलित पहचान को कायम करने और उनके अन्दर चेतना और गरिमा का भाव जगाने में डॉ.अंबेडकर की भूमिका को स्वीकारने के साथ ही उनके राजनीतिक-आर्थिक-दार्शनिक विचारों की आलोचना हमें प्रस्तुत करनी होगी।
आईआईटी हैदराबाद के प्रोफेसर और प्रसिद्ध साहित्यकार लाल्टू ने कहा कि मार्क्सवाद कोई जड़ दर्शन नहीं है, बल्कि नये-नये विचारों से सहमत होता है। मार्क्सवादियों को भी ज्ञान प्राप्ति की अनेक पद्धतियों का प्रयोग करना चाहिये और एक ही पद्धति पर स्थिर नहीं रहना चाहिये।
प्रोफेसर सेवा सिंह ने कहा कि अंबेडकर का मूल्याँकन सही इतिहास बोध के साथ किया जाना चाहिये। साथ ही इस्लाम पर अंबेडकर के विचारों की भी पड़ताल करने की जरूरत है।
पंजाबी पत्रिका 'प्रतिबद्ध' के संपादक सुखविंदर ने डॉ.तेलतुंबड़े द्वारा कम्युनिस्टों की आलोचना के कई बिन्दुओं पर तीखी टिप्पणी करते हुये कहा कि भारत के कम्युनिस्टों के पास 1951 तक क्रान्ति का कोई विस्तृत कार्यक्रम ही नहीं था, ऐसे में जाति के सवाल पर भी किसी सुव्यवस्थित दृष्टि की उम्मीद करना गलत होगा। लेकिन देश के हर हिस्से में कम्युनिस्टों ने सबसे आगे बढ़कर दलितों-पिछड़ों के सम्मान की लड़ाई लड़ी और अकूत कुर्बानियाँ दीं।
आज संगोष्ठी में दो अन्य पेपर पढ़े गये जिन पर चर्चा जारी है। 'संहति' की ओर से असित दास ने 'जाति प्रश्न और मार्क्सवाद' विषय पर आलेख प्रस्तुत किया, जबकि पीडीएफआई, दिल्ली के अर्जुन प्रसाद सिंह का पेपर 'भारत में जाति का सवाल और समाधान के रास्ते' उनकी अनुपस्थिति में तपीश मेंदोला ने प्रस्तुत किया।
आधार पत्र तथा अन्य पेपरों पर जारी बहस में यूसीपीएम माओवादी के वरिष्ठ नेता नीनू चापागाई, सिरसा से आये कश्मीर सिंह, देहरादून से आये जितेन्द्र भारती, लखनऊ के रोहित राजोरा व सूर्य कुमार यादव, लुधियाना के डॉ.अमृत, दिशा छात्र संगठन के सन्नी, वाराणसी के राकेश कुमार आदि ने विचार व्यक्त किये।
सत्र की अध्यक्षता नेपाल राष्ट्रीय दलित मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष तिलक परिहार, ज्ञान प्रसार समाज के संचालक डॉ.हरीशतथा डॉ.अमृत पाल ने किया। संचालन का दायित्व सत्यम ने निभाया।
http://journalistcommunity.com/index.php?option=com_content&view=article&id=2883:2013-03-15-11-04-26&catid=34:articles&Itemid=54
सब को साथ जोड़ कर आगे बढ़ेगा बामसेफ
Wednesday, 13 March 2013 09:40 | Written by Palash Biswas
पलाश विश्वास
बामसेफ एकीकरण सम्मेलन अंबेडकर भवन, दादर ईस्ट में 2 मार्च और 3 मार्च को बारी कामयाबी के साथ संपन्न हो गया।अविभाजित बामसेफ के निवर्तमान अध्यक्ष बीडी बोरकर, मेहना धड़े के अध्यक्ष ताराराम मेहना और बुजनसमाजवादी पार्टी के साथ काम कर रहे बामसेफ कार्यकर्ताओं समेत देशभर से आये लगभग सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व करनेवाले प्रतिनिधियों की मौजूदगी में बामसेफ के एकीकरण की प्रक्रिया शुरु हो गयी। एक राष्ट्रीय पुनर्चना कोर कमिटी का चुनाव हो गया, जो लोकतांत्रिक तरीके से सांगठनिक ढांचे के सामाजिक भौगोलिक व भाषायी प्रतिनिधित्व के तहत पुनर्गठन के लिए संगठन के संविधान में जरुरी बदलाव करेगा ताकि समय समय पर नेतृत्व परिवर्तन हो और संगठन पर किसी का व्यक्तिगत या किसी काकस का वर्चस्व स्थापित न हो और संसाधनों को आंदोलन में ही लगाया जाना सुनिश्चित हो।
सभी अपने सुझाव भेज सकते हैं, शंकाओं का निराकरण कर सकते हैं।इस दो दिवसीय सम्मेलन में सिर्फ बामसेफ के विभिन्न धड़ों को ही नहीं, सभी अंबेडकरवादियों, सभी मूलनिवासी बहुजनों को एक झंडे के नीचे लाने का एजंडा भी तय हुआ है। छह महीने के भीतर एकीकरण की प्रक्रिया पूरी कर ली जायेगी और इसके बाद बामसेफ के बाहर बिभिन्न दलों और संगठनों के साथ आम सहमति के न्यूनतम कार्यक्रम के तहत साझा मंच बनाने की कार्रवाई शुरु होगी। चूंकि इस अभियान में शामिल कोई भी व्यक्ति नेतृत्व के लिए आकांक्षी नहीं है, इसलिए हमने सभी का यहां हमारे साथ जुड़ने का आमंत्रण दिया है। हमें किसी व्यक्तित्व या समुदाय से कोई अस्पृश्यता का व्यवहार नहीं करना है। इसके साथ ही बामसेफ कार्यकर्ताओं से आह्वान किया गया है कि वे किसी भी प्रकार के व्यक्ति आक्रमण और घृणा अभियान की संस्कृति से दूर रहें। बाबासाहेब अंबेडकर और गौतम बुद्ध ने भाषा का कभी दुरुपयोग नहीं किया है। हम उनकी भाषा का ही इस्तेमाल करें और विचार विमर्श का दरवाजा खुला रखें और हर हाल में लोकतांत्रिक धर्म निरपेक्ष तौर तरीका अपनायें क्योंकि हमारा अंतिम लक्ष्य सिर्फ अंबेडकरवादी ही नहीं, बल्कि गैर अंबेडकरवादी लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष ताकतों का जिनकी आस्था बाबासाहेब रचित भारतीय संविधान में है, सभी सामाजिक और लोकतांत्रिक ताकतों का संयुक्त मोर्चे का निर्माण है, जो कारपोरेट जायनवादी धर्मराष्ट्रवादी अश्वमेध यज्ञ का प्रतिरोध कर सकें।
सम्मेलन के दौरान, उसके बाद और अब भी निरंतर मंथन जारी है। सम्मेलन में माननीय बीडी बोरकर, ताराराम मेहना, ज्योतिनाथ, चमनलाल और दूसरे साथियों ने संगठन के विचलन के कारण बताते हुए एकीकरण के लिए सांगठनिक ढांचे और संविधान में आवश्यक फेरबदल करने के बहुमूल्य सुझाव दिये, जिनका पूरा संज्ञान लिया गया और इसके लिए कोर कमिटी का चुनाव भी हो गया। बोरकर और मेहना समेत सभी धड़ों के पदाधिकारियों ने एकीकरण के लिए सिर्फ सहमति ही नहीं दी, बल्कि हर संभव सहयोग करने का संकल्प भी लिया है। उनके सुझावों पर हमने अमल करना शुरु कर दिया है। हम अंबेडकर विचारधारा के मुताबिक देश की उत्पादक व सामाजिक शक्तियों के साझा मंच से इस देश की बहिष्कृत निनानब्वे फीसद जनगण के डिजिटल बायोमेट्रिक कत्लेआम के लिए आर्थिक सुधारों के नाम जारी अश्वमेध अभियान के खिलाफ अविलंब राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरु करने के लिए कोशिश कर रहे हैं, जो सबसे अहम है।इसके बिना न आरक्षण की निरंतरता रहेगी और न जनप्रतिनिधित्व के जरिये संविधान, संसद और लोकतंत्र का वजूद कायम रहेगा।सत्ता में भागेदारी भी असंभव है। सबसे जरुरी है कि इस देश के लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष ढांचे की सुरक्षा के लिए संविधान के मुताबिक लोकतांत्रिक प्रणाली और जीवन के हर क्षेत्र में सभी के लिए समान अवसर।
इस कोर कमिटी में अभी बामसेफ के सभी धड़ों और समविचारी संगठनों की केंद्रीय कमिटियों के प्रतिनिधि शामिल किये जाने हैं और राज्यों से सामाजिक भौगोलिक व भाषायी प्रतिनिधित्व के आधार पर और प्रतिनिधि शामिल किये जाने हैं। यह प्रक्रिया चालू है। बामसेफ आंदोलन और विचारधारा को व्यक्तिवाद और वर्चस्ववाद से ऊपर उठाते हुए संस्थागत रुप देना हमारा लक्ष्य है, जिसके तहत बाबासाहेब के अर्थ शास्त्र के मुताबिक वंचित मूलनिवासी समाज की आर्थिक और भौतिक बेहतरी के लक्ष्य, समता, भ्रातृत्व और सामाजिक न्याय के आधार पर महात्मा गौतम बुद्ध के धम्म के अंतर्गत हासिल किया जा सकें।
हम मानते हैं कि अगर संविधान की पांचवी और छठीं अनुसूचियों के तहत आदिवासियों को उनके हक हकूक मिल गये होते तो माओवाद की कोई संभावना नहीं है। अगर बहिष्कार और नरसंहार की संस्कृति के बजाय भारतीय संविधान की लोक गणराज्य की अवधारणा के तहत लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर राजकाज चला होता तो देश में हिंसा और गृहयुद्ध का यह माहौल नहीं होता। इस एकीकरण सम्मेलन में बड़ी संख्या में आदिवासी प्रतिनिधियों ने विभिन्न राज्यों का प्रतिनिधित्व किया। कोर कमिटी में तीन बड़े आदिवासी नेता ताराराम मेहना (राजस्थान), विजय कुजुर(झारखंड) और भास्कर बाकड़े (महाराष्ट्र) शामिल हैं। भविष्य में भी परिवर्तित सांगठनिक ठांचे में सभी समुदायों को समुचित प्रतिनिधित्व दिया जायेगा। आदिवासियों के लिए अपने इलाके से बाहर निकलना विभिन्न कारणों से लगभग असंभव है, इसलिए संगठन अब व्यापक पैमाने पर आदिवासियों के बीच जायेगा। संगठन में शरणार्थियों, महानगरों की गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों और घूमंतू समुदायों को भी समुचित प्रतिनिधित्व दिया जायेगा।
जाति व्यवस्था के भारतीय यथार्थ की अनदेखी का दुष्परिणाम हमारे सामने है। भारतीय विचारकों में से बाबा साहेब अंबेडकर नें ही इस तिलिस्म को तोड़ने का रास्ता बताया है और वह रास्ता लोकतांत्रिक और धर्म निरपेक्ष है। बाबासाहेब विश्वप्रसिद्ध अर्थ शास्त्री भी हैं। राथचाइल्ड की देखरेख में जनसंहार संस्कृति के तहत भारत में जो साम्राज्यवादी कारपोरेट राज है और जिसका धर्म राष्ट्रवाद समर्थन करता है, २०१४ में धर्म राष्ट्र की स्थापना जिसका एजंडा है, उसके लिए अंबेडकर अर्थ शास्त्र और जाति उन्मूलन केंद्रिक, भौतिक उन्ययन, समता और सामाजिक न्याय के बाबासाहेब के दर्शन के सिवाय इस प्रलंयकारी विपर्यय से बच निकलने के लिए भारतीयय आम जनता, रंगभेदी वर्चस्ववादी जायनवादी धर्म राष्ट्रवादी कालाधन की व्यवस्था कारपोरेट राज के शिकार निनानब्वे फीसद नागरिकों के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं है। इस सिलसिले में बेहतर विमर्श के लिए आदिवासी लेखक हरिराम मीणा के विचार और हाशिये पर धकेल दिये गये समाज के प्रति प्रतिबद्ध कारपोरेट साम्राज्यवाद के विरुद्ध निरंतर संघर्षरत लेखिका अरुंधति राय का पूरा एक इंटरव्यू जाति समस्या पर केंद्रित इस रपट के साथ नत्थी है। इससे रपट थोड़ी लंबी जरुर होगी पर आपको हमारा आशय समझने में सहूलियत होगी।
हमने इस सम्मेलन के लिए कोई संवाददाता सम्मेलन का आयोजन नहीं किया। बामसेप के संस्थापकों में से एक मास्टर मानसिंह ९३ वर्ष की अवस्था के बावजूद आगरा से मुंबई तक आये। न केवल सम्मलन का उद्घाटन किया, विमर्श में बढ़ चढ़कर भाग लिया। सम्मेलन के बाद भी वे सक्रिय हैं। इस सम्मेलन को महात्मा ज्योति बा फूले से भी पहले ब्राह्मणवाद को खारिज करके मतुआ आंदोलन शुरु करने वाले नील विद्रोह के किसान नेता हरिचंद ठाकुर को समर्पित किया गया, जिनकी दो सौवीं जयंती हाल में मनायी गयी है। सम्मेलन स्थल का नाम हरिचंद ठाकुर मंच रहा। हम कारपोरेट मीडिया के आभारी हैं कि उसने स्वतःस्फूर्त होकर अंबेडकर विचारधारा, बामसेफ और मूलनिवासी आंदोलन के बारे में अपने तमाम पूर्वग्रहों को किनारे रखकर सम्मेलन का निरंतर कवरेज किया। उनके मतामत और सुझावों पर हम अवश्य ही गौर करेंगे पर विनम्र निवेदन है कि इस प्रसंग में वे हमारे मतामत को भी समान महत्व दें। सोशल मीडिया शुरु से हमारे साथ है और हमें उनसे एकीकरण प्रक्रिया पूरी करने की दिशा में आगे भी सहयोग की भारी प्रत्याशा है।
अंध धर्म राष्ट्रवाद की पैदल सेना बनकर भक्तिमार्ग पर देश काल परिस्थिति से अनभिज्ञ बहुजन समाज जिस अंधकार में मारे जाने को नियतिबद्ध है, वहां अंबेडकर विचारधारा और बहुजन महापुरुषों के समता और सामाजिक न्याय के आंदोलन की अटूट परंपरा ही हमारे लिए दिशा निर्देश हैं।
महज आरक्षण नहीं, सिर्फ सत्ता में भागेदारी नहीं, बल्कि अंबेडकरवादी अर्थशास्त्र के मुताबिक देश की अर्थ व्यवस्था और प्राकृतिक संसाधनों, संपत्ति, रोजगार, शिक्षा, नागरिक, स्त्री और मानवअधिकारों के लिए, जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखली के विरुद्ध संविदान के तहत पांचवीं और छठीं अनुसूचियों में प्रदत्त गारंटी लागू करने के लिए, दमन और भय का माहौल खत्म करने के लिए यह अतिशय विलंबित कार्यभार अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए सभी अंबेडकरवादियों, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ताकतों, जनांदोलनों को बिना किसी बैर भाव और अहम के एक ही लक्ष्य के लिए गोलबंद होना बेहद जरुरी है।
एकाधिकारवादी नेतृत्व के बजाय लोकतांत्रिक सामाजिक,भाषिक व भौगोलिक प्रतिनिधित्व वाले साझा नेतृत्व स्थानीय स्तर पर गांव गांव से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक विकसित करने की आवश्यकता है।
जाति उन्मुलन हमारा लक्ष्य है और हम अस्पृश्यता के विरुद्ध हैं। भेदभाव के विरुद्ध हैं। राष्ट्रव्यापी आंदोलन के लिए सबसे जरुरी है राष्ट्रव्यापी विचार विमर्श। जिसके लिए इस देश के पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों, शरणार्थियों और अल्पसंख्यकों को कहीं कोई स्पेस नहीं मिलता। सारे लोग बिखराव के शिकार है। हम तोड़ने में नहीं, जोड़ने में यकीन करते हैं और इस बिखराव को खत्म करने के लिए प्राथमिक स्तर पर बामसेफ के सभी धड़ों और गुटों के एकीकरण का प्रयास करते हैं। सभी धड़ों, गुटों के अध्यक्षों को इस सम्मेलन के लिए आमंत्रण पत्र भेजा गया और सबको खुला आमंत्रण था। जो लोग किसी कारण से इस सम्मेलन में शामिल नहीं हो पाये, एकीकरण की प्रक्रिया में उनका भी स्वागत है। हम इस व्यवस्था के सिवाय किसी के खिलाफ नहीं है।
बामसेफ के एकीकरण से हम बहुजनसमाज के निर्माण की दिशा में उत्पादक शक्तियों और सामाजिक शक्तियों का वैश्विक व्यवस्था के विरुद्ध विश्वभर में जारी प्रतिरोध आंदोलन और रंगभेद व दासता के विरुद्ध मुक्तिसंग्राम की परंपराओं के मुताबिक, सूफी संतों .महापुरुषों और बाबासाहेब की विचारधारा व परंपराओं के मुताबिक, मुक्ति के लिए दुनिया भर की जनता के आंदोलनों की सुदीर्घ परंपराओं के मुताबिक ध्रुवीकरण और एकीकरण चाहते हैं। संवाद और विमर्श के लिए बामसेफ एकीकरण सम्मेलन एक अनिवार्य पहल है। जहां एकमात्र एजंडा यही है कि बहुजन समाज का निर्माण और राष्ट्रव्यापी आंदोलन।
अगर विचारधारा एक है, लक्ष्य एक है, तब अलग अलग द्वीपों में अपने अपने तरीके से लड़कर अपने लोगों का, अपने स्वजनों का नरसंहार का साक्षी बनते रहने के लिए क्यों अभिशप्त रहेंगे हम? मान्यवर कांशीराम, ने दीनाभानाजी, खापर्डे और मास्टर मानसिंह जैसे लोगों ने अंबेडकर विचारधारा के कार्यान्वयन और सूफी,संतों, महापुरुषों के आंदोलन की निरंतरता बनाये रखने के उद्देश्य से बहुजन समाज की गुलामी खत्म करने के लिए बामसेफ की स्थापना की थी, जो बहुजन समाज के सभी कर्मचारियों को संगठित कर उनके जनतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष करेगा और समाज के बीच जागरूकता फैलाएगा। एक दौर तक बामसेफ आंबेडकर के विचारों और कांशीराम की सोच को पोषित करता रहा, लेकिन बाद के वर्षों में सोच-विचार की भिन्नताओं और नेतृत्व के व्यक्तिगत अहं और स्वार्थ के चलते बामसेफ आज चार-पांच टुकड़ों में बंट गया है और जातीय, क्षेत्रीयता, भाषायी आधार पर भी संगठन के बीच विभाजन बढ़ता जा रहा है। नेतृत्व की वैचारिक भिन्नता के चलते तन-मन-धन से पूरी तरह समर्पित कार्यकर्ता समझ नहीं पा रहे हैं कि कौन-सा बामसेफ आंबेडकरवादी है और कौन-सा अन्य विचार वाला। कार्यकर्ताओं में एक अंधभक्ति-सी है, जिसके चलते उनके नेता ने जो कह दिया वही आखिरी सत्य बन जाता है। बामसेफ के अलग अलग धड़े व्यवस्था परिवर्तन के लिए संघर्ष करने के बजाय अपने अपने वर्चस्व के लिए आत्मघाती अभियान में मग्न हैं। देश और दुनिया में जो कुछ हो रहा है, उससे हम पूरी तरह बेखबर हैं और कारपोरेट में तब्दील वर्चस्ववादी धर्मराष्ट्रवाद के बैनर तले पैदल सेना में तब्दील हो रहे बहुजनों से बामसेफ का कोई संवाद नहीं है। बाबासाहेब ने जाति उन्मूलन का लक्ष्य तय करके समता और सामाजिक न्याय पर आधारित वर्गहीन जातिविहीन शोषणमुक्त समाज की स्थापना की दिशा तय की थी। संविधान की रचना करते हुए भारतीय गणराज्य की नींव डालते हुए मौलिक अधिकारों के साथ साथ आरक्षण और संविधान के पांचवीं छठीं अनुसूचियों के जरिये अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों को संवैधानिक रक्षा कवच दिया था। ओबीसी के अधिकारों के लिए और भारतीय स्त्री के अधिकार सुनिश्चित करने के लिए अपने रचित हिंदू कोड बिल के खारिज होने पर उन्होंने नेहरु मंत्रिमंडल से त्याग पत्र दिया था। आर्थिक सुधार के नाम पर बेरोकटोक संविधान की रोजाना हत्या हो रही है। देश की निनानब्वे फीसद आम जनता के मौलिक अधिकारों को कुचलने के लिए, जल, जंगल, जमीन, नागरिकता और आजीविका, नागरिक और मानवाधिकारों से मूलनिवासी बहुजनों को बेदखल करने के लिए कारपोरेट राज के तहत धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ठांचा को ध्वस्त करते हुए एक के बाद एक जनविरोधी नीतियां बन रही हैं। लागू हो रही हैं। राष्ट्र का सैन्यीकरण हो रहा है। कश्मीर,मणिपुर समेत समूचे पूर्वोत्तर और देश के सभी आदिवासी इलाकों में सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून और सलवा जुड़ुम समेत विभिन्न नामों के अंतर्गत मूलनिवासी बहुजनों के खिलाफ मनुस्मृति नस्ली वर्चस्व वाली व्यवस्था ने युद्ध की घोषणा करके राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक सुरक्षा के बहाने रक्षा सौदों के जरिये कालेधन की अर्थ व्यवस्था के तहत बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता के हथियार के बल पर साम्राज्यवादी जायनवादी ताकतों की पारमाणविक मदद से नरसंहार संस्कृति चलाय़ी हुई है, लेकिन बामसेफ की इस ओर नजर नहीं है। अंबेडकरवादी विचारधारा के तहत जाति उन्मूलन के बजाय जातीय पहचान के आधार पर सत्ता में भागेदारी अब एकमात्र लक्ष्य हो गया है। कारपोरेट चंदा वैध हो जाने के बाद अब तो जो अराजनीतिक थे वे भी राजनीतिक दल बनाकर मैदान में डट गये है और व्यवस्था बदलने के बजाये मूलनिवासी बहुजन समाज को और विभाजित कर रहे हैं।
हम किसी भी तरह के मिथ्या और घृणा अभियान के प्रतिरोध के लिए अंगीकारबद्ध हैं। हमें सामाजिक और मानवीय होना चाहिए, पर सामने वाले में भी ऐसा कुछ सोच दिखाई देना चाहिए, जिससे उनका मानवीय होना, सबको बराबर इंसान समझना उनके व्यवहार और कृत्यों से झलकता हो। ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो आज भी दलितों को अपनी अघोषित संपत्ति मानते हैं, मगर इंसान तक मानने को तैयार नहीं हैं। संगठन के नेतृत्व और बाकी लोगों को विवेक से काम लेना होगा। दलितवाद के अंदर निरंतर बढ़ रहे ब्राह्मणवादी मानसिकता को भी समझने की जरूरत है। ये बात अलग है कि आज देश का दलित समाज भी भयंकर ब्राह्मणवाद से ग्रसित हो चुका है। बंधुत्व और समानता जैसे शब्दों के अर्थ अभी खुलने बाकी हैं।
http://journalistcommunity.com/index.php?option=com_content&view=article&id=2863:2013-03-13-04-11-20&catid=34:articles&Itemid=54
आंबेडकर विरुद्ध मूलनिवासी
मधु कांबळे - madhukar.kamble@expressindia.com
Published: Sunday, March 10, 2013
आरपीआयप्रमाणेच आता बामसेफमध्ये बरेच गट पडले आहेत. या सर्व गटांनी पुन्हा एकत्र यावे यासाठी बामसेफच्या मूळ विचारसरणीला मानणाऱ्या काही कार्यकर्त्यांनी प्रयत्न सुरू केले आहेत. यासाठी लोकशाही पद्धतीने संघटनेची पुनर्रचना करण्याचा निर्णय घेण्यात आला. त्याला कितपत यश येईल, हा वेगळा प्रश्न आहे. परंतु अलीकडच्या काळात बामसेफने जी मूलनिवासी ही संकल्पना मांडण्यास सुरुवात केली आहे, तीच मुळात फुले-आंबेडकर विचारधारेच्या विरोधात जाणारी आहे..
भारतीय राजकारणात उतरायचे असेल आणि यशस्वी व्हायचे असेल तर त्या राजकीय पक्षाजवळ मनुष्यबळ आणि द्रव्यबळ असणे आवश्यक आहे. त्याशिवाय पक्षाची भूमिका मतदारांपर्यंत पोहोचविण्यासाठी बुद्धिजीवी कार्यकर्त्यांची एक फळीही असावी लागते. १९७० ते ८०च्या दशकात हाच विचार करून कांशिराम यांनी 'बॅकवर्ड क्लास अॅण्ड मायनॉरिटी कम्युनिटी एम्प्लॉईज फेडरेशन' अर्थात 'बामसेफ' या संघटनेची स्थापना केली. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी मोठय़ा संघर्षांने मिळवून दिलेल्या घटनात्मक आरक्षणामुळे केंद्र व राज्य सरकारमध्ये नोकऱ्या मिळालेल्या आणि थोडय़ा प्रमाणात मध्यमवर्गीय जीवनाकडे वाटचाल करू लागलेल्या संघटित अशा नोकरदार वर्गाभोवती बामसेफने जाळे टाकले.
रिपब्लिकन पक्षातील गटबाजीला कंटाळलेल्या दलित, मागासवर्गीय अधिकारी व कर्मचाऱ्यांनी राजकीय सत्तेची स्वप्ने दाखविणाऱ्या कांशिराम यांच्या बामसेफला तन-मन-धनाने स्वीकारले. दुसरी गोष्ट अशी की, या नोकरदार वर्गाला सुरक्षितता हवी होती. तुम्ही फक्त वर्गणी द्यायची, बंद खोलीतील शिबिरात सहभागी व्हायचे, वर्षांतून एखाद दुसरे अधिवेशन घ्यायचे, बस्स. दुसरे म्हणजे रस्त्यावर उतरून संघर्ष वगैरे काही करायचा नाही, एवढेच करायचे म्हटल्यावर सामाजिक ऋण फेडल्यासारखे दाखविण्यासाठी कातडीबचाऊ नोकरदार वर्गाला बामसेफ हा उत्तम पर्याय वाटला. दलित-मागासवर्गीयांच्या न्याय्य हक्कांसाठी, त्यांच्यावरील अन्याय-अत्याचाराच्या विरोधात रस्त्यावर उतरून लढणाऱ्या आंबेडकरी कार्यकर्त्यांकडे हा 'बामसेफ फेम' बूझ्र्वा नोकरदार वर्ग कुचेष्टेने बघू लागला. रस्त्यावर लढणारा कार्यकर्ता नसता तर, सरकारी सेवेतील मागासवर्गीय अधिकारी वा कर्मचारी यांच्या नोकऱ्या सुरक्षित राहिल्या असत्या का? अनेक कार्यकर्त्यांनी आपले आयुष्य पणाला लावले, परंतु आज हा नोकरदार वर्ग आपल्या नोकऱ्या कशा शाबूत राहतील, झटपट बढत्या कशा मिळतील याचाच फक्त विचार करत आहे. अशा अप्पलपोटी नोकरदारांना आंबेडकरवादी म्हणता येईल का? असो. पण तरीही बघता-बघता देशभर बामसेफ फोफावली. त्याच भक्कम पायावर कांशिराम यांनी नंतर बहुजन समाज पक्षाची स्थापना केली. त्यानंतरची बसपची उत्तर प्रदेशातील सत्तेची वाटचाल सर्वश्रुतच आहे. अर्थात बामसेफचा व बसपचा काही संबंध नाही, असा अलीकडे दावा केला जातो. त्यात काही प्रमाणात तथ्य आहे. कारण बसपच्या सर्वेसर्वा मायावती यांना आता तशी बामसेफच्या मनुष्यबळाची व द्रव्यबळाची गरज उरलेली नाही. परंतु बसपचा सदस्य कोणत्या राजकीय पक्षाचा समर्थक वा सहानुभूतीधारक आहे, तर तो फक्त बसपचाच. बसपलाही आता 'भारत मुक्ती मोर्चा' नावाने नवा राजकीय पर्याय देण्याचा प्रयत्न सुरू झाल्याने मूळ बामसेफमध्ये फाटाफुटीला सुरुवात झाली. आरपीआयप्रमाणेच आता बामसेफमध्ये बरेच गट पडले आहेत. या सर्व गटांनी पुन्हा एकत्र यावे यासाठी बामसेफच्या मूळ विचारसरणीला मानणाऱ्या काही कार्यकर्त्यांनी प्रयत्न सुरू केले आहेत. त्याचाच एक भाग म्हणून मुंबईत २ व ३ मार्चला विविध गटांतील कार्यकर्त्यांची बैठक झाली. त्या बैठकीत सध्या प्रभावी असलेल्या बामसेफच्या एका गटाच्या नेत्यावर संघटनेत हुकूमशाही पद्धतीने वागत असल्याबद्दल टीका करण्यात आली. लोकशाही पद्धतीने संघटनेची पुनर्रचना करण्याचा निर्णय घेण्यात आला. त्याला कितपत यश येईल, हा वेगळा प्रश्न आहे. परंतु अलीकडच्या काळात बामसेफने जी मूलनिवासी ही संकल्पना मांडण्यास सुरुवात केली आहे, तीच मुळात फुले-आंबेडकर विचारधारेच्या विरोधात जाणारी आहे. बामसेफचे सदस्य एकमेकांना भेटल्यानंतर किंवा सभा-बैठकांमध्ये 'जय मूलनिवासी' म्हणून एकमेकांचे स्वागत करतात. 'जयभीम'च्या जागी 'जय मूलनिवासी' हा शब्द आला. आता ही मूलनिवासी काय भानगड आहे, हे जाणून घेण्याचा प्रयत्न केला. मूलनिवासी या विचाराचा सध्या जोरात प्रचार सुरू आहे. त्यावर खास पुस्तिका लिहिल्या आहेत, 'मूलनिवासी नायक' नावाचे एकपानी वृत्तपत्रही चालविले जाते. मूलनिवासी ही मांडणीच मूळात द्वेषावर आधारित आहे, म्हणून ती महाभयंकर आहे. उदाहरणार्थ, बामसेफचे उद्दिष्ट काय तर, मूलनिवासी या तथाकथित सिद्धांताच्या आधारावर या देशातील ब्राह्मण वर्ग सोडून साडेसहा हजार जातींना जोडणे. या साडेसहा हजार जातींचे कडबोळे बांधून काय करायचे तर, म्हणे राष्ट्रीय आंदोलन! म्हणजे काय, तर काहीच नाही. तर मग या मूलनिवासीचे इतके स्तोम का माजविण्यात आले आहे? फुले-आंबेडकरी विचारांना बगल देऊन राजकीय स्वार्थ साधण्यासाठीच हा सारा खटाटोप चालला आहे, असे म्हटले तर ते चुकीचे ठरणार नाही. म्हणजे उदाहरणार्थ, मूलनिवासी नायक वृत्तपत्राच्या ५ सप्टेंबर १२च्या अंकात बामसेफच्या एका प्रचारकाचे भाषण प्रसिद्ध करण्यात आले आहे. त्यात ते म्हणतात, परदेशी युरेशियन ब्राह्मणांची व्यवस्था उद्ध्वस्त करून मूलनिवासी व्यवस्था प्रस्थापित करण्यासाठी बामसेफची निर्मिती करण्यात आली आहे. म्हणजे या देशातील ब्राह्मण हे परके आहेत व सारे अब्राह्मणी मूळ भारतीय आहेत, अशी त्यांची मांडणी आहे. त्यासाठी तथाकथिक कुणा तरी एका काल्पनिक मानववंशशास्त्रज्ञाचा आधार घेतात. त्याने म्हणे केलेल्या काही डीएनए चाचणीत ब्राह्मण परकीय असल्याचे आणि इतर साडेसहा हजार जातीच फक्त मूळ भारतीय असल्याचा शोध लावला आहे. म्हणजे ब्राह्मण सोडून सारे मूलनिवासी. जोतिबा फुले यांची या ठिकाणी आठवण होते. आपण चिरंजीव असल्याचा व आदिनारायणाचा अवतार असल्याचा दावा करणाऱ्या काल्पनिक परशुरामाला जोतिबांनी जशी त्याला सहा महिन्यांच्या आत हजर राहण्याची नोटीस बजावली होती, तशीच नोटीस या तथाकथित मानववंशशास्त्रज्ञाला बजावावी लागणार आहे.
वास्तविक पाहता डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी भारतीय समाजव्यवस्थेची, संस्कृतीची, धर्मग्रंथांची कठोर चिकित्सा केली आहे. मानववंशशास्त्राच्या आधाराने त्यांनी जातीय व्यवस्थेचे सैद्धांतिक विश्लेषण केले आहे. आर्य बाहेरून आले व त्यांनी मूळच्या अनार्याना जिंकून दास्य किंवा गुलाम बनविले. आर्य म्हणजे ब्राह्मण आणि बाकीचे अनार्य म्हणे शूद्र वा बहुजन अशा आजवरच्या तकलादू इतिहासाला आंबेडकरांनी शूद्र पूर्वी कोण होते आणि अस्पृश्य मूळचे कोण होते, या दोन शोधप्रबंधांत छेद देणारे नवे निष्कर्ष काढले आहेत. शूद्र हे पूर्वी आर्यच होते, शूद्रांचे हिंदू-आर्य समाजात मूळचे स्थान दुसऱ्या म्हणजे क्षत्रिय वर्णात होते. ब्राह्मण व क्षत्रिय यांच्यातील वर्चस्ववादातून शूद्रांना चौथ्या वर्णात टाकून त्यांना खालचा दर्जा देण्यात आला, असे बाबासाहेब सांगतात. आता आर्याना परकीय समजायचे तर मग पूर्वाश्रमीच्या शूद्रांना आणि आताच्या बहुजनांनाच उपरे ठरविण्यासारखे आहे. त्यानंतर अस्पृश्य मूळचे कोण, याचाही बाबासाहेबांनी शोध घेतला आहे. मूळचे आणि परके असले भेदाचे राजकारण करणाऱ्यांनी बाबासाहेब काय म्हणतात ते नीट एकदा समजून घ्यावे. ते म्हणतात, विभिन्न वंशांचा निर्णय करण्याचे वांशिक शरीररचनाशास्त्र हेच खरे शास्त्र असेल, तर हिंदू समाजातील विभिन्न जातींना या शास्त्राची कसोटी लावून पाहिल्यास अस्पृश्य हे आर्य आणि द्रविड वंशापेक्षा भिन्न वंशाचे लोक आहेत, हा सिद्धांत कोलमडून पडतो. या मोजमापावरून हे सिद्ध होत आहे की, ब्राह्मण व अस्पृश्य हे एकाच वंशाचे लोक आहेत. जर ब्राह्मण आर्य असतील तर अस्पृश्यही आर्यच आहेत. ब्राह्मण जर द्रविड असतील तर अस्पृश्यही द्रविडच आहेत. ब्राह्मण नाग वंशाचे असतील तर अस्पृश्यही नाग वंशाचे आहेत. त्या आधारावर अस्पृश्यतेला वंशभेदाचा आधार नाही, असा निष्कर्ष बाबासाहेबांनी काढला आहे. चातुर्वण्र्य व्यवस्थेत अस्पृश्य या अवर्णाची उपपत्ती कशी झाली, त्यालाही कोणता संघर्ष कारणीभूत आहे, हा एक स्वतंत्र चर्चेचा विषय आहे. परंतु बाबासाहेबांनी येथील सर्व समाजव्यवस्थेचे मूळ शोधून काढले आहे, शूद्र पूर्वी कोण होते हे सांगितले, अस्पृश्य मूळचे कोण होते, याचीही सैद्धांतिक उकल करून दाखविली. मग बामसेफ आता कोणत्या मूलनिवासींचा शोध घेत आहेत? बाबासाहेबांच्या संशोधनावर-सिद्धांतावर त्यांचा विश्वास आहे की नाही? दुसरे असे की, बाबासाहेबांनी आम्ही कोण याचे मूळ शोधून या समाजाच्या हातात जगाने स्वीकारलेला बुद्ध दिला. बुद्ध द्वेषाला मूठमाती द्यायला सांगतो. बुद्ध समता, न्याय, बंधुभाव, मैत्री, करुणेचा आग्रह धरतो. बुद्ध जगाच्या - मानवाच्या कल्याणाची भाषा करतो. मग एखाद्या देशात वंशभेदाच्या आधारावर मूळचे कोण व उपरे कोण अशी विभागणी करणे कितपत योग्य आहे? बाबासाहेबांना जातिव्यवस्था मोडायची होती. बामसेफला जाती मोडायच्या आहेत की जोडायच्या आहेत? फक्त जाती जोडायच्याच असतील तर ते आंबेडकरी विचाराच्या विरोधात आहेत, असे म्हणावे लागेल.
http://www.loksatta.com/vishesh-news/bamcef-s-original-resident-concept-conflict-with-the-ambedkar-ideology-78236/
मते.. मतांतरे..
मुंबई
Published: Sunday, March 17, 2013
रविवार ,१० मार्च रोजीच्या 'लोकसत्ता' मध्ये मधु कांबळे यांचा 'आंबेडकर विरुद्ध मूलनिवासी' हा लेख प्रसिद्ध झाला होता. अलीकडच्या काळात बामसेफने जी मूलनिवासी ही संकल्पना मांडण्यास सुरुवात केली आहे, त्या अनुषंगाने लिहिलेल्या लेखावरील या वाचकांच्या काही प्रतिक्रिया..
बामसेफ हे जातींचे कडबोळे नाही
कांबळे यांचा लेख वाचून खूप वाईट वाटले. आपण जे लिहिले, त्यामध्ये माहितीचा आपल्याजवळ अभाव आहे असा आमचा समज झाला आहे.
१. ज्या बामसेफच्या एकत्रीकरणाबद्दल आपण लिहिले आहे, ती मूळ बामसेफमधून बाजूला झालेल्या लोकांची कृती आहे. त्याची प्रचीती पुढील वेबसाइटवरून आपणास समजून येईल.
http://unitedblackuntouchablesworldwide.blogspot.in/2013/03/bamcef-unification-conference.html
दुसरी, ज्यांच्या संघटनेला तुम्ही गट म्हणालात, त्यांच्या अधिवेशनाची छायाचित्रे मूलनिवासी नायक दैनिकातून आपणास मिळतील.
२. भारत मुक्ती मोर्चा हे राजकीय संघटन नसून सामाजिक आंदोलनासाठी- राष्ट्रव्यापी आंदोलनासाठी रस्त्यावर उतरणाऱ्या लोकांचे संघटन आहे. ज्यांना तुम्ही कातडीबचाऊ म्हणता तेच लोक तुम्हाला रस्त्यावर दिसतील. दिल्लीला झालेल्या ३ मार्चच्या रॅलीची छायाचित्रे मूलनिवासी नायकमध्ये बघा.
३. बामसेफमधून ज्या लोकांनी पक्ष काढला, त्याचे नाव 'बहुजन मुक्ती पार्टी'असे असून त्याचे अध्यक्ष न्या. ए. के. अकोदिया हे आहेत.
४. बाबासाहेबांनी जी पुस्तके लिहिली ती उत्कृष्टच आहेत, पण तुम्ही तुमच्या सोयीची मोजकीच वाचलीत की सर्व वाचून बामनांच्या सोयीची आहेत ती मांडत आहात, याबद्दल मनात शंका होत आहे.
५. बामसेफ हे जातींचे कडबोळे नसून मूलनिवासी लोकांचा एक समूह होईल. एकदा वामन मेश्राम अध्यक्ष असलेल्या बामसेफ या राष्ट्रव्यापी संघटनेच्या किमान एका कार्यकर्त्यांशी तरी चर्चा करा.
६. मूलनिवासीसंदर्भात तुम्ही जे लिहिलेत, ते बुद्धांच्या, बाबासाहेबांच्या विज्ञानवादी दृष्टिकोनाच्या अगदी उलट दिशेने म्हणजे नाव, चेहरा मूलनिवासींचा, पण मेंदू विचार करण्यासाठी बामनाच्या ताब्यात दिल्यासारखी तुमची अवस्था आहे. ज्या वंशशास्त्रज्ञाबद्दल त्यातील काही नावे अशी- प्रा. मायकेल बामशाद तसेच कोलकात्याचे पार्थ पी. मुजुमदार, संघमित्रा साहू, अनामिका सिंह, जी. हिमाबिंदू, झेलम बॅनर्जी, टी. सीतालक्ष्मी, सोनाली गायकवाड, आर. त्रिवेदी, फिलिप एण्डिकॉट वरील सवार्ंना बोलावण्यासाठी फक्त भारताच्या कोर्टात एक केस दाखल करा. उगाच महात्मा फुलेंचे नाव चुकीच्या संदर्भाने घेऊन बदनाम करू नका. आपण एकदा सविस्तर बामसेफच्या कार्यकर्त्यांसोबत चर्चा करा. बामनांशीही चर्चा करा आणि DNA म्हणजे नेमके काय हे समजून घ्या, विचार करा आणि मग लिहा. असे फक्त मूलनिवासीच तुम्हाला सांगू शकतो. तरी बामनाच्या मेंदूने विचार न करता स्वत:च्या डोक्यात मेंदू असेल तर त्याचा वापर करावा.
- प्रवीण राजीगरे
प्रश्नच निर्थक
इतिहास असं सांगतो की मानवाची उत्पत्ती आधी आफ्रिका खंडात झाली आणि नंतर मानवाचे इतर ठिकाणी स्थलांतर झाले. त्यामुळे तसं पाहायला गेलं तर आपण सर्वच उपरे आहोत. त्यामुळं मूलनिवासी कोण हा प्रश्नच निर्थक आहे असं मला वाटतं. ब्राह्मणांचाच काय, कुणाचाही द्वेष निव्वळ स्वार्थासाठी करू नये अशी बुद्धांची शिकवण आहे. पण हे सांगायला गेलं तर आपणच पांढरपेशे ठरतो, हीच खरी शोकांतिका आहे..
-आशित कांबळे
अयोग्य विचार फेटाळा
कांबळे यांचा लेख वाचला. हजारो ब्राह्मणांच्या मनातील विचार तुम्ही मांडले आहेत. जातीयवादाच्या (चातुर्वण्र्य) ब्राह्मणी विचारांना आंबेडकर आणि फुले यांनी विरोध केला, सरसकट सर्व ब्राह्मणांना नव्हे. परंतु आता सर्व अयोग्य बाबींचे खापर ब्राह्मणांवरच फोडण्याची फॅशन आली आहे. मानवाच्या उत्क्रांतीत, विशेषत: सामाजिक उत्क्रांतीत हे महत्त्वाचे पाऊल असल्याने जातीयवाद आणि जुन्या धर्मग्रंथांमधील सर्व प्रकारचे अयोग्य विचार 'वसुधैवकुटुम्बकम' साध्य करण्यासाठी फेटाळले गेले पाहिजेत. आपला लेख शौर्य दर्शवितो आणि आपणच बाबासाहेब आणि फुले यांचे खरे अनुयायी असल्याचे सिद्ध करतो. आपण भारतीय म्हणून पुढील पिढीसमोर जातीचा नि:पक्षपाती इतिहास आपल्या पूर्वजांच्या चुकांसह आणि आपल्या समाज सुधारकांसह सकारात्मक पद्धतीने मांडला पाहिजे.
डॉ. मंगेश पी. मोहरील, अकोला
आंबेडकरी पद्धतीने छाननी
'मूळनिवासी विरुद्ध आंबेडकर' हा लेख वाचला. तथाकथित मूळनिवासींच्या व्याख्यानाची कांबळे यांनी आंबेडकरी पद्धतीने छाननी केल्याबद्दल त्यांचे अभिनंदन. अलीकडेच मी 'मूलनिवासीवाद का झूठ' हे समता सैनिक दलाचे पुस्तक वाचले आणि आपल्याप्रमाणेच माझे मत झाले. त्याचबरोबर आपण शूद्र आणि अस्पृश्यता या संदर्भातही ठोस आणि ऐतिहासिक दस्तऐवज वाचला. मी आंबेडकरवादी असून मीडिया आणि इतिहासाचा विद्यार्थी याची स्तुती करील, कारण माझ्या पिढीतील बहुसंख्य लोक संशोधन करीत नाहीत, केवळ नेत्यांकडून मिळालेल्या माहितीवर प्रतिवाद करतात.
विनय सोनुले.
पटणारे विचार
आंबेडकर विरुद्ध मूळनिवासी हा आपला लेख वाचला. अत्यंत माहितीपूर्ण लेख आहे. जेव्हा २००७ मध्ये मी 'बामसेफ'च्या बैठकीला हजर होतो तेव्हा माझ्या मनात विचार होता की, 'बामसेफ'चा सदस्य 'जय भीम' म्हणण्याऐवजी 'जय मूळनिवासी' असे म्हणतो. हे आंबेडकर यांच्या विरोधातील विचार आहेत. मी आपल्याशी पूर्णपणे सहमत आहे. डॉ. आंबेडकर यांच्या चळवळीबद्दल आपल्याकडून अधिक माहितीची अपेक्षा करतो.
नवनाथ सरवदे, अमरावती.
लेख अपुऱ्या माहितीवर
मधु कांबळे यांना अपूर्ण माहिती मिळाली आहे. त्यामुळे त्यांच्यासारखी माणसे आम्हाला हवी आहेत. गेल्या ३ मार्च रोजी ज्या 'बामसेफ'वाल्यांनी अखेरीला सभेचे आयोजन केले होते आणि त्याबाबत आपण ज्यांचा उल्लेख हुकूमशहा असा केला ते दिल्लीत अतिविशाल सभेला संबोधित करीत होते. आपल्या गैरसमजाला आता मूळनिवासी कधीही फसणार नाहीत. टिळकांनी आपल्या पुस्तकांत आम्ही युरेशियातील ब्राह्मण आहोत, असे लिहिले आहे का, डिस्कव्हरी ऑफ इंडियामध्ये नेहरू लिहितात की, आम्ही विदेशी ब्राह्मण आहोत, सर विल्यम जोन्स यांच्या मते ब्राह्मण हंगेरीतून आले आहेत. ऋग्वेद आणि इराणच्या ग्रंथात, ब्राह्मण अंटाक्र्टिकातून आल्याचे म्हटले आहे. जरा हे लिहा, तरच आम्ही तुम्हाला सच्चे मानू. आपण ब्राह्मण आणि ब्राह्मणवाद या दोघांच्या विरोधात आहोत, असे १९३५ मध्ये डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी म्हटले होते. आपण हे लिहिलेत तर मी तुम्हाला आंबेडकरवादी म्हणेन.
- मनोज साळवे.
चळवळीला प्रोत्साहन मिळेल
कांबळे यांचा लेख वाचला. आज भारतात लोकांना अनेक समस्यांना तोंड द्यावे लागत असून त्याचे मूळ कारण ब्राह्मणवाद आहे. ब्राह्मणवादामुळे असमानता, जातीयवाद, गुलामगिरी, बेरोजगारी, बॉम्बस्फोट, नक्षलवाद जन्मले आहेत. 'बामसेफ' आणि भारत मुक्ती मोर्चा या संघटनेने आम्हाला महापुरुषांनी दाखविलेल्या वाटेवरून जावयास शिकविले आहे. या महापुरुषांनी वरील समस्या सोडविण्यासाठी आपले आयुष्य वेचले म्हणजेच ते ब्राह्मणवादाविरुद्ध लढले. आपल्या लेखात आपण 'बामसेफ'वर टीका केली आहे. त्यामुळे देशव्यापी चळवळीला प्रोत्साहन मिळेल.
- अजय कांबळे.
http://www.loksatta.com/vishesh-news/people-reaction-on-article-by-madhu-kamble-on-bamcef-82733/
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