Saturday, 28 January 2012 10:39 |
निरंकार सिंह दुनिया में भारत की उभरती हुई स्थिति का दावा किया जाता है। लेकिन हमारा स्थान सहारा मरुस्थल से सटे अफ्रीका के गरीब देशों से बहुत आगे नहीं है। जब विकास में इतनी भारी असमानता होगी तो सामाजिक असंतोष, गरीबी और बेरोजगारी को कैसे कम किया जा सकता है? गौरतलब है कि जीडीपी का ग्राफ ऊंचा रहने के दौरान ही देश में एक लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी करने को विवश हुए। कुल मिला कर देखा जाए तो आज भी हमारी सबसे बड़ी समस्या गरीबी, बेरोजगारी, बाढ़ और सूखा ही हैं जिनसे देश की बहुत बड़ी आबादी प्रभावित है। अर्थशास्त्री और योजना आयोग के सलाहकार संतोष मेहरोत्रा ने अपनी पुस्तक 'एलिमिनेटिंग हृयूमन पॉवर्टी' में कहा है कि अगर गरीबी से पूरी तरह निपटना है तो बुनियादी सामाजिक सेवाओं को बेहतर बनाना होगा। यह सिर्फ माइक्रो इकोनॉमी या वृहत अर्थव्यवस्था के विकास से नहीं हो सकता। इससे छुटकारा तभी मिल सकता है जब बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य, जल, पोषण की हालत भी अर्थव्यवस्था के साथ-साथ सुधरेगी। इस पुस्तक में उन दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों का उदाहरण दिया गया है जहां छोटे-छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए विशेष योजनाएं बनाई जाती हैं। विकासशील देशों में बड़ी संख्या में लोगों को छोटे उद्योगों (जिनमें पंद्रह से कम लोग काम करते हैं) में रोजगार प्राप्त होता है। लेकिन संतोष मेहरोत्रा जो कह रहे हैं वह गांधीजी पहले ही कह चुके हैं। अब बहुत-से लोग अनुभव करने लगे हैं कि गांधीजी के बताए रास्ते पर नहीं चल कर हमने भारी गलती की है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना अच्छी है। लेकिन सवाल यह है कि सरकारी योजनाओं में उस तबके के लिए क्या किया जा रहा है, जो शहरों और महानगरों में बेरोजगारी की मार झेल रहा है। वह शिक्षित, अशिक्षित, दसवीं पास, ग्रेजुएट, प्रशिक्षित और पेशेवर जैसी अनेक श्रेणियों में बंटा हुआ है और संगठित-असंगठित किसी भी तरफ पांव जमाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है। इस समय लगभग चार करोड़ युवक-युवतियां नौकरियों के लिए भटक रहे हैं और दो करोड़ रोजगार के बाजार में आने के लिए तैयार हैं। उधर अगर हम सामाजिक और आर्थिक विकास को देखें तो बड़ी भयानक तस्वीर सामने आएगी। आबादी में तेजी से वृद्धि हो रही है। गरीबी भी बढ़ रही है। भोजन, वस्त्र के अलावा पेयजल, मनुष्य के रहने लायक आवास, चिकित्सा जैसी न्यूनतम सुविधाएं भी तमाम लोगों को उपलब्ध नहीं हैं। ऐसी दशा में भी कुछ थोडेÞ-से व्यक्तियों को छोड़ कर भारत का विशिष्ट वर्ग चाहता है कि तकनीक और भी आधुनिक हो, औद्योगीकरण बढेÞ और कृषि का अधिकाधिक यंत्रीकरण और रसायनीकरण हो। आज भारत में आर्थिक सुधार का दर्शन यही है। इसका नतीजा हमारे सामने है, बढ़ती हुई बेरोजगारी। हम नहीं जानते कि अपनी आवश्यकताएं स्वयं कैसे पूरी करें। विदेशी पूंजी, विदेशी तकनीक और विदेशी साजो-सामान पर हम निर्भर हैं। हमारे देश में उपभोक्ता वस्तुओं से लेकर पेय और खाद्य पदार्थों का निर्माण भी विदेशी कंपनियां करने लगी हैं। यहां तक कि हम रोजमर्रा की घरेलू वस्तुओं के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भर हैं। हमारे हुनर और उद्योग मानो किसी खड़ी चट्टान पर खड़े हैं और उन पर मौत का खतरा मंडरा रहा है। लेकिन देश को इस भयावह संकट से बचाने का खयाल अभी तक हमारे राजनेताओं को नहीं आ रहा है। देश के उद्योग राज्यमंत्री द्वारा लोकसभा में दिए गए एक उत्तर के अनुसार आर्थिक मंदी और अन्य कारणों से अब तक 8,82,427 लघु उद्योग बंद हो गए हैं। अगर एक उद्योग में औसतन दस कर्मचारी भी कार्यरत हों तो लगभग एक करोड़ कर्मचारियों और उनके परिवारों के पांच करोड़ लोगों के समक्ष रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है। भारत एक अरब बीस करोड़ से अधिक आबादी वाला देश है और योजना आयोग की ही मानें तो इस समय लगभग चालीस करोड़ लोग रोजगार पाने के हकदार हैं। ऐसे में हमारी योजनाओं का लक्ष्य क्या होना चाहिए? हमारा लक्ष्य तो यही हो सकता है कि अधिक से अधिक लोगों को काम-धंधा मिले। अब कई लोग गांधीजी के कार्यक्रमों और योजनाओं का समर्थन करने लगे हैं। जैसे कि कृषि हमारी विकास योजनाओं का मुख्य आधार बनना चाहिए।इसकी बुनियाद पर ही गृह उद्योगों और ग्रामोद्योग की एक रूपरेखा गांवों के विकास के लिए बनानी चाहिए। उसमें बिजली, परिवहन और बाजार आदि की सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जाएं। यह बडेÞ उद्योगों की उपेक्षा की बात नहीं है। पर अपने देश में जहां पूंजी की बहुत कमी हो और श्रम-शक्ति बडेÞ पैमाने पर बेकार पड़ी हो और देश की अधिसंख्य आबादी गांवों में बसती हो तो वहां योजना की बुनियाद बदलनी चाहिए। बडेÞ-बडेÞ विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) और मॉल बनाने के लिए किसानों की भूमि जबरन अधिग्रहीत की गई। इससे लोग बेरोजगार हुए हैं। बेरोजगार बना कर रोजगार देने की नीति बुनियादी रूप से गलत है। हमारी सरकार को उन छोटी-छोटी कंपनियों की ओर ध्यान देना चाहिए जो देश को गरीबी की गिरफ्त से बाहर निकालने की क्षमता रखती हैं। |
Saturday, January 28, 2012
विषमता का विकास
विषमता का विकास
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