Monday, May 16, 2011

स्वस्ती श्री : शैलेश मटियानी जी को जानना आवश्यक….. By नैनीताल समाचार on May 9, 2011

स्वस्ती श्री : शैलेश मटियानी जी को जानना आवश्यक…..

Shailesh_Matiyaniकरीब सात-आठ साल पहले, मटियानी जी की मृत्यु के बाद साहित्य अकादेमी ने मटियानी जी के संपूर्ण साहित्य का मोनोग्राफ तैयार करने का मुझे काम सौंपा। उनकी मौत से मैं तीन-चार साल तक उबर नहीं पाया था, इसलिए कुछ भी लिख नहीं पाया। बड़े प्रयत्नों के बाद जब उसका आरंभिक हिस्सा 'कथादेश' में छपा तो मटियानी जी की संतानों की प्रतिक्रिया देखकर मैं दंग रह गया। मैं जिसे उनकी ताकत समझता था, उनके बच्चे उन्हें उजागर नहीं करना चाहते थे। मुझे पहली बार मालूम हुआ कि वे उन्हें आंचलिक कथाकार कहने में अपमान का अनुभव करते थे। 1962 में जब उनका पहला कहानी संग्रह 'मेरी तैंतीस कहानियाँ' छपा तो नागार्जुन ने उन्हें हिंदुस्तान का गोर्की कहा था। 'मुख सरोवर के हंस' को जब मैंने उत्तराखंड लोक सेवा आयोग की परीक्षा में 'मैला आँचल' को हटाकर संस्तुत किया, उनके बच्चों ने उसे वहाँ नहीं लगने दिया। आयोग की तत्कालीन संयोजक सुधा पांडे से कहा गया कि अगर वे इस उपन्यास को कोर्स में लगाएंगी तो वे कोर्ट में उन पर मुकदमा करेंगे।

साहित्य अकादेमी के संकलन को मैंने करीब छह-सात सालों की मेहनत के बाद साढ़े चार सौ पृष्ठों की किताब के रूप में पिछले साल तैयार किया। इसी बीच कथाकार पंकज बिष्ट ने नेशनल बुक ट्रस्ट से 'भारतीय साहित्यकार' सिरीज के अंतर्गत मटियानी जी की चुनी हुई कहानियों की योजना स्वीकृत करवा कर मुझे सौंपा। दो सौ पृष्ठों का यह संकलन मैंने गत वर्ष तैयार करके एन. बी. टी. को भेज दिया। मगर मटियानी जी की पुस्तकों के स्वत्वाधिकारी उनके पुत्र का कहना है कि वे पांडुलिपि पढ़े बगैर प्रकाशन की अनुमति नहीं देंगे। उन्हें शक है कि मैंने किताब में मटियानी जी की छवि खराब की है। मगर चाहे साहित्य अकादेमी हो या नेशनल बुक ट्रस्ट, विशेषज्ञों के उनके अपने पैनल होते हैं, जिनसे उन्होंने किताबों को रिव्यू करा लिया है। बेटे को पांडुलिपि भेजने से उन्होंने मना कर दिया है, जो उनकी अपनी नीति है। कई महीनों से दोनों किताबें प्रकाशकों के पास पड़ी हैं। शायद एन. बी. टी. ने तो उसका प्रकाशन स्थगित भी कर दिया है। मेरी मेहनत का जो नुकसान हुआ है, वह अपनी जगह पर है। साहित्य अकादेमी ने हालाँकि मुझे अपना पारिश्रमिक दे दिया है।

यह टिप्पणी मैं यहाँ मटियानी जी के पाठकों को यह संदेश देने के लिए लिख रहा हूँ कि कोई भी रचना प्रकाश में आने के बाद किसी परिवार, क्षेत्र, जाति या देश की नहीं रह जाती, वह सार्वजनिक हो जाती है। मटियानी जी का कोई भी संग्रह किसी बड़े प्रकाशक से नहीं छपा है। हिंदी साहित्य में वे बहुत अधिक चर्चित भी नहीं रहे हैं, ऐसे में उन जैसी बड़ी प्रतिभा को लोग एक दिन भूल जाएँगे। यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि उनके साहित्य को हम संरक्षण प्रदान करें।

डॉ. लक्ष्मण सिंह बिष्ट 'बटरोही', नैनीताल

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