Basantipur Times
Saturday, October 18, 2025
अंडमान में झारखंड के आदिवासी
अंडमान में झारखंड के आदिवासी
जिन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं मिला है।
झारखंड के आदिवासी ब्रिटिश हुकूमत के दौरान कहां कहां कालापानी नहीं भेजे गए। दो सौ साल तक भारत के आदिवासी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते रहे। जल जंगल जमीन की लड़ाई हजारों साल से वे लड़ते रहे।हम उन्हीं के वंशज हैं,जो अलग अलग धर्म और पहचान ओढ़कर अब आदिवासी नहीं रहे और अपने हक हुकूक के लिए हुक्मरान के आगे झुके बिना हजारों साल से लड़ते रहे हैं।
आजादी की लड़ाई में इस देश के हर हिस्से में हर समुदाय के लोगों का योगदान है। लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ जिसतरह लगातार आदिवासी विद्वान होते रहे, वैसे गैर आदिवासियों की आजादी की लड़ाई की निरंतरता और किसी की है या नहीं,हम नहीं कह सकते।
झारखंड के आदिवासी लगातार लड़ते रहे हैं तो अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें लगातार दमन और नरसंहार से जवाब दिया है।इसके अलावा उन्हें झारखंड से बाहर भी निकला है।बांग्लादेश में ऐसे आदिवासी बहुत हैं। बंगाल और अंडमान के चौबगानों में भी वे भेजे जाते रहे हैं।
अंडमान में छोटानागपुर के आदिवासी वे लोग हैं जिन्हें 1818-1820 के बीच ब्रिटिश सरकार अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में लाई थी। ये आदिवासी समूह मुख्य रूप से छोटा नागपुर पठार क्षेत्र से हैं, जिनमें संथाल, उरांव, गोंड, मुंडा, हो, भील और अन्य शामिल हैं। ये आदिवासी आज अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के एक बड़े समुदाय का हिस्सा हैं, लेकिन वे लंबे समय से एसटी (अनुसूचित जनजाति) का दर्जा न मिलने के कारण अधिकारों को लेकर संघर्ष कर रहे हैं।
जारवा आदिवासियों के निषिद्ध इलाके में भी वे बसाए गए।जैसे bratang द्वीप में जारवा आदिवासियों के अलावा सिर्फ छोटानागपुर के आदिवासी समुदाय हैं।
2003 में जब महाश्वेता देवी की बांग्ला पत्रिका भाषा बंधन के संपादकीय में हम थे,तब अंडमान के जंगलों से इन आदिवासियों की लड़ाई महाश्वेता देवी लड़ रही थीं। जबकि भारत में अंडमान में रह रहे लोगों के बारे में कोई खास जानकारी नहीं है।मुझे भी नहीं है,लेकिन मैं उपलब्ध सीटों से जानकारी इकट्ठा करने की कोशिश कर रहा हूं। जो भी जानकारी मिल रही है,साझा कर रहा हूं।
पिताजी पुलिनबाबू की 2001 में मृत्यु होने के बाद हमने देशभर में बसाए गए बंगाली विभाजनपीड़ितों के इलाकों में जाता रहा हूं।ये सारे इलाके आदिवासी इलाके हैं। उत्तराखंड की तराई के घने जंगलों में भी नुकसा और थारू आदिवासी ही रहते थे,जान बंगाली विस्थापितों की कालोनियां बनीं।
दंडकारण्य में तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के आदिवासी इलाकों में भी बंगाली विस्थापित बसाए गए।इनके अलावा मणिपुर, त्रिपुरा, असम, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश के आदिवासी इलाकों में भी बंगाली विस्थापित हैं।
राजनीति विस्थापितों और आदिवासियों को लड़ाने की है।विस्थापित निन्यानबे प्रतिशत अनुसूचित जातियों के हैं। जिन्हें अनुसूचित जातियों का दर्जा नहीं मिला।आदिवासी भूगोल से बाहर और आदिवासी भूगोल में भी अनेक आदिवासी समूहों को आदिवासी का दर्जा नहीं मिला है। वैसे ही बंगाल से बाहर बंगाली दलित विस्थापितों को भी कहीं आरक्षण नहीं है।
चूंकि ये तमाम इलाके बेशकीमती खनिज इलाके हैं और प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध हैं, आदिवासियों और विस्थापितों के खिलाफ सर्वत्र बेदखली अभियान चल रहा है। हमने अनेक आदिवासी नेताओं और बंगाली विस्थापित नेताओं से मिलकर इस बेदखली और अपने हक हुकूक के लिए साझा मोर्चा बनाकर लड़ने की अपील की है।विभिन्न राज्यों में आदिवासियों और विस्थापितों की साझा बैठकों की हैं।लेकिन दोनों समुदाय के लोग मानने को तैयार नहीं हैं। छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र के आदिवासी नेता मन भी गए,लेकिन विस्थापित नेता कहीं नहीं माने।
अंडमान में भी आदिवासी,बंगाली विस्थापित और तमिल लोग बड़ी संख्या में हैं।सबकी समस्याएं एक हैं।सभी लड़ भी रहे हैं लेकिन अलग अलग। सभीका अलग अलग दमन हो रहा है।
अंग्रेजी हुकूमत में किसान विद्रोह में तो आदिवासी साथ थे।नील विद्रोह,संन्यासी विद्रोह, चूआड़ विद्रोह में भी।लेकिन संताल विद्रोह,मुंडा विद्रोह, गोंड विद्रोह, भील विद्रोह जैसे आदिवासी विद्रोह में दूसरे लोग तो दूर,दूसरे आदिवासी समुदाय भी शामिल नहीं हुए। इन सभी विद्रोह का क्रूरता पूर्वक दमन हुआ।
आज भी दमन और नरसंहार का सिलसिला जारी है।
छोटानागपुर के आदिवासी और अंडमान
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: ब्रिटिश काल में, इन आदिवासियों को द्वीप समूह को रहने योग्य बनाने के लिए अंडमान लाया गया था।
प्रमुख जनजातियाँ: छोटेनागपुर से अंडमान आए आदिवासी समूहों में गोंड, संथाल, उरांव, भील, हो, हलबा और मुंडा प्रमुख हैं।
वर्तमान स्थिति: इन आदिवासियों की संख्या लगभग 1.50 लाख है, लेकिन उन्हें आज तक अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा नहीं मिला है, जिस पर वे विरोध कर रहे हैं।
समस्या: वे सामान्य वर्ग में गिने जाते हैं और एसटी के दर्जे से जुड़े अधिकारों से वंचित हैं।
Speaking about Silence: One Hundred Years of Adivasi Migration to the Andamans
इस आलेख में अंडमान में छोटा नागपुर के आदिवासियों की सदियों पुरानी सिलसिलेवार त्रासदी का वर्णन है:
The politically loaded language of indigeneity is broadly conceived of as a tool of empowerment. Articulations of indigenous voice, however, can also produce the opposite effect of empowerment: silence. The intricate dialectic between silence and voice can be better understood by examining the experience of the Ranchis, a diasporic ethnicity-in-the-making who live on the Andaman Islands (Zehmisch 2017). Composed of migrants from various indigenous communities of the Chotanagpur plateau in central India, the Ranchis had been transported to the Andaman Islands by the Catholic Labour Bureau in Ranchi from 1918 onward.
Linked to their common discrimination as “primitive and docile tribals,” (Zehmisch 2017, 167) officials have routinely silenced Ranchi claims to state resources. As a result, approximately sixty thousand Ranchi laborers and their descendants have been cut off from the avenues of social mobility and have been denied a meaningful voice in local politics.
The events of December 30, 2018, are a case in point: Ranchi activists had organized a public event on that day in order to commemorate the centenary of their migration to the islands. The event was cancelled, however, due to official security concerns linked to the arrival of the prime minister, Narendra Modi, who was campaigning in the islands. Seeking to understand why the centenary
celebrations could be easily called off by officials, I investigate how the discourse on indigenous rights, entitlements, affirmative action, and welfare has become manifest at the local level. An examination of the history of the Andamans’ settlement and the contested indigenous identity of the Ranchis themselves shed light on the systems that systemically silence Ranchi claims to rights and Adivasi visibility.
The Ranchis are caught between two types of indigenous subjectivity that limit their political voice and visibility. The first goes back to classic notions of indigenous peoples as the primitive, fossilized Other of colonization, as found in settler colonies all over the planet. The history of the Andamans fits in the settler-colonial framework (Wolfe 1999) when it comes to certain characteristics. These include a fluid, shifting frontier between “savagery” and “civilization,” (Sen 2010) as well as ethnocidal tendencies toward the indigenous gathering and hunting communities. The indigenous peoples of the Andamans—known to anthropological audiences through A. R. Radcliffe-Brown’s (1922) The Andaman Islanders—had been decimated by British colonization of the islands from 1858 onward when convicts, and later Ranchis, cleared the tropical forests, enabling infrastructure development and a flourishing timber
export industry. After Independence, all kinds of disenfranchised communities settled on indigenous lands, causing a significant demographic increase from 30,971 in 1951 to around 500,000 inhabitants. The Ranchis functioned as the major “architects” (Zehmisch 2016, 133) of this spatial transformation without ever being acknowledged by those who had benefitted from it.
Concomitant with the settler-colonial framework, Ranchis are also limited by the global perception of the Andamans. For foreign audiences, the Andamans remain intertwined with the exotic notion of savagery. The hunter-gatherers remaining on the islands count among the last “unconquered” communities across the planet, embodying the constant struggle for indigenous survival that finds broad symbolic support by rights activists and concerned global publics. These audiences represent them as the “ecologically noble savages” of the Anthropocene (see also Hames 2007). Exemplified by the 2018 killing of the American missionary John Chau by the Sentinel, state sovereignty shows its limits when exempting the perpetrators from juridical sanctions. Here, an implicit acceptance of a notion of indigenous sovereignty, which permits violent self-defense against outside interference—even against Americans—seems to be common sense.
https://www.culanth.org/fieldsights/speaking-about-silence-one-hundred-years-of-adivasi-migration-to-the-andamans
Friday, October 17, 2025
सर्पदंश का इलाज क्यों नहीं होता?
यह एंटी वेनम इंजेक्शन है। अत्यावश्यक जीवन रक्षक दवा है यह।इस देश में सबसे बड़ी आबादी खेती किसानी करने वालों की हैं। हर साल हजारों लोग खेती किसानी में सर्पदंश में मारे जाते हैं बिना इलाज। झाड़ फूंक के सिवाय ग्रामीण इलाकों में सर्पदंश का कोई इलाज नहीं है। पिछले साल हमारे ही गांव में पत्रकार प्रकाश अधिकारी की भाभी की असमय मृत्यु हो गई सर्पदंश से।बाजपुर मिशन अस्पताल में ही एंटी वेनम इंजेक्शन मिलता है।वाहन ले जाते हुए उन्होंने दम तोड़ दिया।
बसंतीपुर में हमारे घर के सामने सुभाष मंडल और उनके चार भाई रहते हैं। उनके पिता महेंद्र मंडल की मृत्यु उनके बचपन में हो गई थी। आज सुबह खेत में धन काटते हुए हाल में हुई भारी बरसात में जमा पानी में सांप ने उन्हें कट लिया।तुरंत उन्हें लेकर मेरे भतीजी Ankur Biswas और भाई Divas Sarkar उन्हें लेकर दिनेशपुर Jagdish Chandra Mandal के चैंबर में ले आए। उन्होंने फौरन एंटी वेनम इंजेक्शन देकर रक्तचाप और ब्लड क्लोटिंग नियंत्रित कर लिया।जहर फैलने से पहले इलाज शुरू हो जाने से सुभाष अब खतरे से बाहर है।
डॉ मंडल दिनेशपुर के पहले MBBS विस्थापित बंगाली समाज के डॉक्टर हैं। वे बागेश्वर जिले के सीएमओ पद से रिटायर होने के बाद दिनेशपुर में आम लोगों की चिकित्सा करते हैं। उन्होंने प्रकाश के घर में सर्पदंश से मृत्यु के बाद एंटी वेनम इंजेक्शन और सर्पदंश से इलाज के लिए जरूरी उपकरण और दवाइयां रखना शुरू किया है।
पूर्व सीएमओ डॉ मंडल ने बताया कि ग्रामीण क्षेत्र में हर प्राथमिक अस्पताल में एंटीवेनम इंजेक्शन और सर्पदंश के इलाज की व्यवस्था जरूरी है।लेकिन अक्सर जिला अस्पतालों में भी यह व्यवस्था नहीं होती।
उनके मुताबिक अस्पतालों के डॉक्टर इसमें दिलचस्पी नहीं लेते।उन्होंने कहा कि जिस भी अस्पताल में वे रहे, सर्पदंश की व्यवस्था जरूर रखते थे।
आभार डॉ जगदीश मंडल
Friday, September 19, 2025
क्या दुनिया में अब सिर्फ बूढ़े लोग जिएंगे?
प्रिय भाई रिटायर्ड पोस्ट मास्टर Sameer Chandra Roy जी आज अरसे बाद प्रेरणा अंशु के दफ्तर आए।लंबी बातचीत हुई।मौजूदा हालात से दुखी हैं।लेकिन अपनी विचारधारा पर कायम हैं। स्वास्थ्य थोड़ा ढीला है,लेकिन सक्रिय है।
प्रेरणा अंशु के सितम्बर अंक ही उपलब्ध है। लेट आने के कारण हम उन्हें सिर्फ सितंबर अंक की प्रतियां दे पाए।
फिर हम उनके स्कूटर पर बैठकर हरिदासपुर पहुंचे। थोड़ी देर गायत्री के साथ अपनी दुकान पर बैठे।हरिदासपुर प्राइमरी स्कूल में हमारे सहपाठी मंटू मांझी के बड़े बेटे का कल ही 15 दिनों तक दिल्ली,देहरादून, हरिद्वार, रुद्रपुर के अस्पतालों में इलाज के बाद निधन हो गया।
यह दुखद है। मंटू मेरे कोलकाता प्रवास के दौरान ही चल बसे।उनके बड़े भाई माखन दा भी नहीं रहे। मंझला भाई अमूल्य दा का मेरे बसंतीपुर लौटने के बाद निधन हो गया। प्रवासी लंबे समय तक बने रहने के कारण उन्हें ठीक से जनता भी नहीं।
दिवंगत बेटे ने बसंतीपुर की बेटी से विवाह किया था।उस बेटी की उम्र पैंतीस साल के लगभग है।
हरिदासपुर के हर परिवार से बहुत घनिष्ठ रिश्ता रहा है बचपन से,क्योंकि इसी गांव के प्राइमरी स्कूल में मेरी पढ़ाई हुई है।हर परिवार में आना जाना रहा है।
यह और दुखद है कि कम उम्र के लोगों की अकाल मृत्यु हो रही है। Nityanand Mandal और हमने हिसाब जोड़कर देखा है कि हमसे बड़े अस्सी पर 25 स्त्री पुरुष बसंतीपुर में स्वस्थ हैं, लेकिन हमारे गांव लौटने के बाद पचास,साथ साल की उम्र के लोगों का निधन होता रहा है। सिर्फ कार्तिक काका अस्सी पार थी। देवाशीष की मन का निधन सौ साल पूरे होने के बाद हुआ। तो नित्यानंद की काकी का निधन 85 पार करने के बाद हुआ।
गांव,कस्बे और शहर में अमूमन ऐसा हो रहा है। बीमारी और दुर्घटनाओं में बच्चों और जवान लोगों का अक्सर निधन हो रहा है। जबकि नब्बे, सौ पार स्त्री पुरुष स्वस्थ और सक्रिय हैं।
क्या नई पीढ़ी सेहत का ख्याल नहीं रखता?
पहले चिकित्सा की सुविधाएं नहीं थी।लोग प्रकृति पर निर्भर थे। तब भी इतनी अकल मौतें नहीं होती थी।
हम बूढ़े मजे में जी रहे हैं और जवान पोते निकल ले रहे हैं। ऐसे जीने का भी कोई मतलब है कि हम बच्चों का ख्याल नहीं रख पा रहे हैं और न बच्चे हमारी सुन रहे हैं?
क्या अब दुनिया सिर्फ बूढ़ी आबादी में बदल जाएगी?
समीर का दुखी होना वाजिब है।
Sunday, August 31, 2025
हमने आग को चूम लिया
“इमरोज़ बंबई चले गए। गुरुदत्त ने नौकरी, कमरा, सब पेश किया, पर नहीं जानती–तकदीर ने इमरोज़ से कुछ हौले से क्या कहा, कि ठीक तीन दिन के बाद इमरोज़ ने मुझे बंबई से फ़ोन किया–मैं दिल्ली आ रहा हूँ –
यह तकदीर का कोई रहस्य था, जो उसने अपनी उंगलियों से खोल दिया, और मैं जान पाई कि बीस सालों से जो एक साया–सा दिखाई देता रहा–वह इमरोज़ का साया था–जाने किस जन्म का, और अब एक हकीकत बनकर–धरती पर उतर आया है–
इमरोज़ जिंदगी में आए–एक हकीकत बन कर, और साहिर से वह रिश्ता हमेशा बना रहा–उसकी आखिरी सांस तक–
“याद आता है–बरसों पहले एक बार जब साहिर दिल्ली आए, मुझे और इमरोज़ को अपने पास बुलाया–वहाँ, जिस होटल में वे ठहरे थे। हम लोग करीब दो घण्टे वहाँ रहे। साहिर ने विस्की मंगवाई थी–और मेज़ पर तीन गिलास पड़े थे, जब रात गहरी होने लगी, तो हम लोग वापस आए थे। फिर रात करीब आधी होने लगी थी–जब मुझे साहिर का फोन आया–अब भी तीन गिलास मेज़ पर पड़े हैं, और मैं तीनों गिलासों से बारी–बारी से पी रहा हूँ, और लिख रहा हूँ–मेरे साथी ख़ाली जाम–
यह सिर्फ कुदरत जानती है कि कोई धागा था, पता नहीं किस जन्म का, जो इस जन्म में भी–हम तीनों के गिर्द लिपटा रहा–
1990 में जब जालंधर दूरदर्शन ने मुझ पर फिल्म बनाई, तो मुझे अपने–साहिर से और इमरोज़ से जो रिश्ता था, उसका कोई जिक्र करने को कहा। उस वक्त मैंने कहा–
दुनिया में रिश्ता एक ही होता है–तड़प का, विरह की हिचकी का, और शहनाई का, जो विरह की हिचकी में भी सुनाई देती है–यही रिश्ता साहिर से भी था, इमरोज़ से भी है – यह साहिर की मुहब्बत थी, जब लिखा –
“फिर तुम्हें याद किया, हमने आग को चूम लिया
इश्क ज़हर का प्याला सही, मैने एक घूंट फिर से मांग लिया,
और इमरोज़ की सूरत में–अहसास की जो इन्तहा देखी, एक दीवानगी का आलम था, जब कहा–
कलम ने आज गीतों का काफ़िया तोड़ दिया
मेरा इश्क यह किस मुकाम पर आया है।
उठो! अपनी गागर–पानी की कटोरी दे दो
मैं राहों के हादसे, उस पानी से धो लूंगी–
राहों के हादसे – आकाश गंगा का पानी ही धो सकता है–एक दर्द था–जिसने मन की धरती को ज़रखेज़ किया और एक दीवानगी–उसकी बीज बन गई मन की हरियाली बन गई.
-अमृता प्रीतम(अक्षरों के साये; राजपाल एंड संज)
ज्ञान,विज्ञान,विचार पर आस्था भारी,पूरी दुनिया कट्टरपंथियों के शिकंजे में
बंगाल में मुसलमान कट्टरपंथियों के विरोध के कारण जावेद अख्तर का विरोध और उनका कार्यक्रम रद्द किया जाना बेहद दुखद और शर्मनाक है। #जावेद_अख्तर एक बेहतरीन शायर और सेकुलर इंसान हैं। इसका विरोध बंगाल के सुशील समाज और खास तौर पर वामपंथियों को करना चाहिए क्योंकि वे मिजाज से तरक्कीपसंद वाम हैं। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्यों?क्या वामपंथी अब वाम विचारों का भी समर्थन नहीं करते?
मुझे ममता बनर्जी के राज में हुए इस हादसे से कोई हैरत नहीं हुई।क्योंकि इसी बंगाल से बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न पर लिखे अपने उपन्यास लज्जा के कारण निर्वासित लेखिका Taslima Nasrin को भी बंगाल की वाम सरकार ने खदेड़ दिया था मुस्लिम कट्टरपंथियों के विरोध के कारण।
सत्ता बदल जाने और #MamtaBanerjee के मुख्यमंत्री बनने के बाद स्थिति वैसे ही नहीं बदली,जैसे खालिदा जिया के राज में तस्लीमा का निर्वासन हुआ, शेख हसीना या मोहम्मद युनूस ने भी तस्लीमा को घर लौटने की सूरत नहीं बनी।
ममता दीदी खुद प्रतिक्रियावादी हैं।घोर वाम विरोधी हैं। वाम का सफाया करके उन्होंने पश्चिम बंगाल को कट्टरपंथ के हवाले कर दिया है।इसमें कोई शक?
इस देश में कट्टरपंथी अब हर कहीं हावी हैं। विचारों की,अभिव्यक्ति की कोई स्वतंत्रता कहीं नहीं है।जावेद साहब का भाजपाई राज्यों में विरोध न होने की बात कितनी सही है,हमें नहीं जानते।
पाकिस्तान किसी कार्यक्रम में जाने का विरोध न होने के कारण वहां के कट्टरपंथ को या बांग्लादेश में वामपंथियों के जाने की इजाजत की वजह से वाहन के कट्टरपंथी उभर को जैसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, भारत में भी कट्टरपंथियों की निरंकुश तानाशाही को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
आदिम युग से ज्ञान विज्ञान, मनुष्यता, सभ्यता का विकास आस्था के विरुद्ध सवाल उठाए जाने के कारण ही हुआ।इसके लिए महान दार्शनिक सुकरात, महान वैज्ञानिक गैलीलियो जैसे लोगों की शहादते नज़ीर हैं।
आज आस्था पूरी दुनिया पर हावी है।
सवालों और विचारों की कोई गुंजाइश नहीं है।
सत्ता हो या सियासत,कट्टरपंथ की कठपुतलियां हैं।
वाम ही वाम के खिलाफ है।
तरक्कीपसंद ही तरक्की के खिलाफ है।
भावनाएं तर्क और विज्ञान पर हावी हैं।
साहित्य, पत्रकारिता, मीडिया, कला, संगीत, रंगकर्म, फिल्म सबमें आस्था और भावना हावी है। विचारों और सवालों का निषेध है।
हम अंधा युग में हैं
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Friday, August 29, 2025
লিটিল ম্যাগাজিনের আজকের সংকট
লিটিল ম্যাগাজিনের আজকের সংকট: প্রতিবাদের বদলে আত্মপ্রচার
অয়ন মুখোপাধ্যায়
বাংলা সাহিত্যের ভুবনে লিটল ম্যাগাজিন একসময় ছিল বিকল্প চেতনার প্রাণকেন্দ্র। ষাটের দশক থেকে আশির দশক পর্যন্ত অসংখ্য ক্ষুদ্র পত্রিকা জন্ম নিয়েছিল প্রতিবাদী সাহসিকতার ভিতর দিয়ে। তারা মূলধারার বাজার-চালিত সাহিত্যকে চ্যালেঞ্জ করেছিল, রাষ্ট্রের দমননীতির বিরুদ্ধে দাঁড়িয়েছিল, আবার সাধারণ মানুষের সংগ্রামকেও সাহিত্যের আলোয় এনেছিল। ইতিহাস সাক্ষী, মনে পড়ে ভিয়েতনাম যুদ্ধের বিরুদ্ধে প্রতিবাদ ধ্বনিত হয়েছিল কলকাতার একদল তরুণ কবির সম্পাদিত ছোট পত্রিকার পাতায়; নকশালবাড়ির আন্দোলনের পক্ষে তীব্র কণ্ঠস্বর তুলেছিল এই ক্ষুদ্র পত্রিকাগুলোই; এমনকি ১৯৭১-এর মুক্তিযুদ্ধ চলাকালীন সময়ে বহু লিটল ম্যাগাজিন বিশেষ সংখ্যা বের করেছে, শরণার্থী শিবিরের দুর্দশা ও পাকিস্তানি সেনাদের বর্বরতা প্রকাশ্যে এনেছে।
সংখ্যার দিক থেকেও তখনকার বিস্তার ছিল বিস্ময়কর। ১৯৭০-এর দশকের মাঝামাঝি এসে পশ্চিমবঙ্গে সাত-আটশ ক্ষুদ্র পত্রিকা নিয়মিত বা অনিয়মিতভাবে প্রকাশিত হতো। কোন একটি নাম নয় এইরকম অসংখ্য লিটিল আজও ইতিহাসের অংশ। পরবর্তী সময়ে হাল আমলে সিঙ্গুর নন্দীগ্রামের সময়। লিটল ম্যাগাজিনের রাজনৈতিক ভূমিকা ছিল স্পষ্ট অর্থাৎ লিটল ম্যাগাজিন কেবল সাহিত্য প্রকাশের মাধ্যমই ছিল না, বরং রাজনৈতিক প্রতিবাদের প্রাণবন্ত মঞ্চও ছিল।
কিন্তু সেই ধারাটি আজ মারাত্মক সংকটের মুখে। ২০০০ সালের পর থেকে লিটল ম্যাগাজিনের সংখ্যা ক্রমশ কমতে শুরু করে। একসময়ের বিস্ফোরণ সঙ্কুচিত হয়ে দাঁড়িয়েছে দুই-আড়াইশ সক্রিয় পত্রিকায়, তারও অধিকাংশ জেলা বা মহকুমা শহরে সীমাবদ্ধ। আরও বড় সমস্যা হলো, আজকের অনেক লিটল ম্যাগাজিনই প্রতিবাদের জায়গা ছেড়ে এসে নিছক সাহিত্য-আড্ডার মতো হয়ে উঠেছে। কবিতা, ছোটগল্প, বই-সমালোচনা প্রকাশের বাইরে তারা আর বিশেষ কিছু করছে না। রাষ্ট্রীয় ফ্যাসিবাদ, কর্পোরেট দখলদারি কিংবা হিন্দুত্ববাদী রাজনীতির মতো বৃহৎ সংকটগুলোকে স্পষ্টভাবে প্রশ্নবিদ্ধ করছে না।
এখানেই মূল সমস্যা। কারণ লিটল ম্যাগাজিনের ঐতিহাসিক দায় ছিল— মূলধারার বাইরে দাঁড়িয়ে সাহিত্যের ভেতর দিয়ে মতাদর্শগত লড়াইকে এগিয়ে নেওয়া। অথচ এখন দেখা যাচ্ছে, বহু সম্পাদক ও লেখক ব্যক্তিগত স্বীকৃতি, পুরস্কার কিংবা সরকারি অনুদানের মোহে সেই দায় থেকে সরে আসছেন। ইংরেজি অনুবাদের মাধ্যমে আন্তর্জাতিক পুরস্কারের সুযোগ, কিংবা মোটা অঙ্কের গ্রান্ট পাওয়ার লোভ— সব মিলিয়ে সাহিত্যচর্চা ক্রমশ আত্মপ্রচারের উপকরণে পরিণত হচ্ছে।
সবচেয়ে উদ্বেগজনক প্রবণতা হলো, তথাকথিত “বিপ্লবী” লেখকেরা আজ সুস্পষ্টভাবে আরএসএস-বিজেপির প্রকল্পকে প্রশ্ন করতে চাইছেন না। প্রথাগতভাবে এরা তৃণমূল-বিরোধিতার জায়গা থেকে লিখে আসছেন, যা অস্বাভাবিক নয়। কিন্তু আশ্চর্যজনক হলো, একইসঙ্গে তারা ফ্যাসিস্ট হিন্দুত্ববাদের বিরুদ্ধে স্পষ্ট অবস্থান এড়িয়ে যাচ্ছেন। বরং ইংরেজি অনুবাদে বই প্রকাশ করে, সংঘী নিয়ন্ত্রিত আন্তর্জাতিক মঞ্চে পুরস্কার গ্রহণ করে কিংবা নরমভাবে হিন্দুত্ববাদী বই প্রকাশে সম্মতি দিয়ে তারা অজান্তেই আরএসএস-বিজেপির বৃহত্তর নেটওয়ার্কের অংশ হয়ে উঠছেন।
এখানে দ্বিচারিতা স্পষ্ট। জনসমক্ষে এরা বামপন্থী ভাবমূর্তি বজায় রাখছেন, কবিতার ভেতর বিপ্লবী রোমান্টিসিজম ছড়িয়ে দিচ্ছেন; কিন্তু বাস্তবে তারা সহযোগিতা করছেন হিন্দুত্ববাদী সাংস্কৃতিক প্রকল্পকে। এর পেছনে ব্যক্তিগত স্বীকৃতির লোভ, আন্তর্জাতিক সার্টিফিকেটের আকাঙ্ক্ষা এবং আর্থিক সুবিধার প্রলোভন কাজ করছে। ফলে লিটল ম্যাগাজিন, যে প্রতিষ্ঠান একদিন ছিল প্রতিরোধের প্রতীক, আজ তা হয়ে উঠছে ক্ষমতার নেটওয়ার্কের অংশ।
অবশ্যই, সব লিটল ম্যাগাজিনকে একই তরবারির আঘাতে কাটা যায় না। এখনও কিছু ক্ষুদ্র পত্রিকা আছে যারা নিরন্তর প্রতিবাদী কণ্ঠস্বর বজায় রাখছে— গ্রামীণ স্তরে, শ্রমিক আন্দোলনের পাশে, কিংবা নারী-দলিত প্রশ্নে স্পষ্ট অবস্থান নিচ্ছে। কিন্তু সংখ্যার বিচারে তারা সীমিত, এবং প্রভাবের দিক থেকে তারা প্রায় অদৃশ্য। শহুরে আলোচনার মঞ্চে বা বইমেলার চকচকে স্টলে এই কণ্ঠগুলো চাপা পড়ে যাচ্ছে।
এমন প্রেক্ষাপটে প্রশ্ন উঠছে— লিটল ম্যাগাজিনের ভবিষ্যৎ কী? তারা কি আবার সেই পুরনো দায়িত্ব ফিরে নিতে পারবে? নাকি আত্মপ্রচারের বাজারেই মিলিয়ে যাবে?
এ প্রশ্নের উত্তর নির্ভর করছে নতুন প্রজন্মের সম্পাদক-লেখকদের উপর। যদি তারা আবার সাহস করে রাষ্ট্রীয় ফ্যাসিবাদ, কর্পোরেট দখলদারি ও হিন্দুত্ববাদকে প্রশ্ন করে, তবে লিটল ম্যাগাজিনের ভেতরে নতুন আন্দোলনের সম্ভাবনা আছে। অন্যথায়, আজকের এই আত্মমুগ্ধ পরিসর ইতিহাসে নিছক সাহিত্য-আড্ডার জায়গা হিসেবেই নথিভুক্ত হবে।
লিটল ম্যাগাজিনের জন্ম হয়েছিল প্রতিবাদ থেকে, তার ইতিহাস গড়া হয়েছিল রক্ত-ঘামের লড়াই দিয়ে। সেই ঐতিহ্যই আজ চ্যালেঞ্জের মুখে। সাহিত্যিক সততা ও মতাদর্শগত দায় যদি হারিয়ে যায়, তবে লিটল ম্যাগাজিন কেবল নামমাত্র ঐতিহ্য হিসেবেই টিকে থাকবে— কার্যকর প্রতিরোধের অস্ত্র হিসেবে আর নয়।
অতএব আজকের সম্পাদক ও লেখকদের সামনে দায় একটাই— ব্যক্তিগত স্বীকৃতি ও সুবিধার প্রলোভন ছেড়ে আবার প্রতিবাদের পথে দাঁড়ানো। না হলে লিটল ম্যাগাজিনের পতাকা যাদের হাতে অর্পিত হয়েছিল, ইতিহাস তাদেরই বিশ্বাসঘাতক বলে নথিবদ্ধ করবে।
বাংলাদেশী সন্দেহে বাঙালিদের মারছে কে? কেন?
বাংলাদেশী সন্দেহ করে পশ্চিমবঙ্গের বাঙালিদের মারছে। এতে কিছু পাবলিক মারাত্মক ক্রুদ্ধ। ক্রুদ্ধ এমনিতে হলে কোনো ক্ষতি নেই, কারণ হওয়াই উচিৎ। দুটো কারণে মারাত্মক ক্রুদ্ধ হওয়া উচিৎ। (১) বাঙালিদের মারবার অধিকার কে দিয়েছে শা* তোদের? তোরা শা* কে? এই হলো এক নম্বর। (২) যারা মারছে, তারা রেসিস্ট, বদমাশ, গুণ্ডা। তার ওপর বিজেপি-মার্কা, অমিত মালবিয়া-মার্কা বাঁদর। সুতরাং তাদের মানুষ বলে মনে করার কোনো কারণ নেই। এবারে আমার ফ্যালাসি বা কনফিউশন হলো, বাংলাদেশী হলে তাদের মারবার অধিকার কে দিয়েছে? প্রথম কথা বাংলাদেশী তারা নয়। বার বার প্রমাণিত হচ্ছে, তারা ভারতীয় বাঙালি, এবং নিজের দেশের যে কোনো জায়গায় গিয়ে থাকবার এবং কাজকর্ম করার অধিকার তাদের আছে। ঠিক যেমন ইউপি, বিহার, ওড়িশা, আসাম, ঝাড়খণ্ড, তেলেঙ্গানা সব জায়গার মানুষ পশ্চিমবঙ্গে এসে থাকে, কাজকর্ম করে, এবং বংশপরম্পরায় আছে। তাদের মারধোর করার অধিকার কারুর নেই। আমি ওই জাতিবিদ্বেষের বদলে জাতিবিদ্বেষ, রেসিজমের বদলে রেসিজম, ঘৃণার বদলে ঘৃণা -- এই পলিটিক্সে বিশ্বাস করি না। পশ্চিমবঙ্গে অবাঙালিদের ওপর অত্যাচার শুরু হলে আমি প্রথম তার প্রতিবাদ করবো। দরকার হলে আইনের পথে যাবো। আমার প্রচুর হিন্দিভাষী বন্ধু আছে, যারা আজকের এইসব মুখে বাঙালি কিন্তু মনে বলিউড, তাদের থেকে অনেক বেশি বাঙালি। তাদের গায়ে কেউ হাত তুল্লে আমি ছেড়ে দেবো না। কিন্তু আমার এই ফ্যালাসি হলো, পশ্চিমবঙ্গীয় বাঙালি হলে তাকে অ্যাটাক করলে আমরা মিছিল মিটিং করবো, আর বাংলাদেশী বাঙালিদের ওপর আক্রমণ হলে তা ঠিক আছে, মোটামুটি মেনে নেওয়াই যায় -- এই তত্ত্বে আমার বিশাল অ্যালাৰ্জি। এই তত্ত্বের আসল মানে হলো, মুসলমান বাঙালি হলে তার ওপর অ্যাটাক করলে অসুবিধে নেই, কারণ বাংলাদেশী বাঙালি মানেই হলো আসলে মুসলমান বাঙালি, এবং ওগুলো সব অনুপ্রবেশকারী এবং হয়তো বা টেররিস্ট -- এই হলো আসল ইনার মিনিং। অর্থাৎ, ভেতরে ভেতরে ইসলামোফোবিয়া এবং বাংলাদেশ-বিদ্বেষ। যারা মিছিল মিটিং করছে, খোঁজ নিয়ে দেখুন, তাদের মধ্যে একটা বিরাট পার্সেন্টেজ আছে, যাদের আসল মিটিং মিছিল করার উদ্দেশ্য হচ্ছে মুসলমান বিদ্বেষ। এরা চায় আর একটা নতুন ধরণের দাঙ্গার পরিবেশ পশ্চিমবঙ্গে সৃষ্টি হোক। এদের পিছনে কারা আছে, I have no idea . কিন্তু অনুমান করতে পারি।
Dr Parth Bannerjee
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