Friday, November 18, 2011

वे मनोरंजन के लिए नहीं, मुक्ति के लिए गाते थे!

http://mohallalive.com/2011/11/11/tribute-to-bhupen-hazarika-by-arvind-das/

स्‍मृति

वे मनोरंजन के लिए नहीं, मुक्ति के लिए गाते थे!

11 November 2011 3 Comments
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♦ अरविंद दास

चाखच भरे दिल्ली के सिरीफोर्ट सभागार में बांग्लादेश की मेरी दोस्त जाकिया ने कार्यक्रम शुरू होने से पहले कहा था, "गाना सुनते हुए यदि मेरी आंखों में आंसू आ जाए तो बुरा मत मानिएगा…' मैं उसकी ओर देखता बस चुप रहा।

वर्ष 2005 में हुए भूपेन हजारिका के उस कार्यक्रम का नाम था, 'अ लिजेंड नाइट – म्यूजिकल जर्नी फ्रॉम ब्रह्मपुत्र टू मिसीसिपी'। एक तरह से उनकी 'लोहित, मिसीसिपी से वोल्गा तक की संगीत यात्रा' को हमने उस शाम देखा-सुना। वर्षों बाद दिल्ली में भूपेन हजारिका का लाइव कंसर्ट हुआ था। और मेरे जानिब शायद दिल्ली में उनका यह आखिरी कार्यक्रम था, जिसे उन्होंने असम की एक सांस्कृतिक और शैक्षणिक केंद्र की स्थापना के निमित्त किया था।

जब उन्होंने 'आमि एक जाजाबर' गाया, तो सभागार में एक अजीब हलचल हुई।

बांग्ला-असमिया मैं बोल नहीं पाता लेकिन मातृभाषा मैथिली से नजदीक होने की वजह से इन भाषाओं को थोड़ा-बहुत समझ लेता हूं… लेकिन उस शाम संगीत के रसास्वादन में भाषा जैसे आड़े नहीं आ रही थी।

हाथ में हारमोनियम लिये मंच पर खड़े भूपेन दा की आवाज में एक बड़े-बूढ़े की आश्वस्ति थी – परिस्थितियां कितनी भी विचित्र हों, संघर्ष से उस पर विजय पाया जा सकता है।

मेरे बाबा एक लोक गायक थे। पर मुझे वे याद नहीं। उस दिन भूपेन दा को सुन कर मैं अपने बाबा की आवाज सुन रहा था।

उनके गाने की शैली एक कथा-वाचक की तरह थी, जो श्रोताओं के सामने एक चित्र खींचता है।

जब उन्होंने 'हे डोला हे डोला… आके बाके रास्तों पर कांधे लिये जाते हैं राजा-महराजाओं का डोला …' गाया तो ऐसा लगा कि मेहनतकश जनता की पीड़ा और दृढ़ निश्चय चित्र रूप में हमारे सामने मंच पर उपस्थित है।

सब जानते हैं कि कोलंबिया में जनसंचार पर अपनी पीएचडी के दौरान भूपेन हजारिका की मुलाकात चर्चित अश्वेत गायक 'पॉल रॉब्‍सन' से हुई। वे रॉबसन के इस कथन से कि 'संगीत सामाजिक बदलाव का एक औजार है', बेहद प्रभावित हुए थे।

रॉब्‍सन ने अपने चर्चित गीत…

ओल्ड मैन रीवर
डैट ओल्ड मैन रीवर
ही मस्ट नो समथिंग
बट डोंट से नथिंग
ही जस्ट कीप्स रोलिंग
ही कीप्स रोलिंग अलॉग…

… में अमेरिकी अश्वेतों की पीड़ा को मिसीसिपी के निष्ठुर बहाव से गुहार के माध्यम से व्यक्त किया है।

भूपेन दा ने 'गंगा बहती है क्यों' के माध्यम से असमिया, बांग्ला और हिंदी में इस पीड़ा और वेदना को उतार दिया। इस गाने के आखिर में जब वे 'निष्प्राण समाज को तोड़ने' की गुहार लगाते हैं, तब उनकी गुहार किसी समय और सीमा में कैद नहीं दिखता। यह गाना मानवीय पीड़ा और उससे मुक्ति का गान बन जाता है।

उनके गानों में अभिव्यक्त लोक चेतना, संघर्ष की चेतना है। कभी 'बूड़ा लुईत' तो कभी 'गंगा' इसी का प्रतीक है।

अजीब विडंबना है कि असम के इस महान संगीतकार से हिंदी समाज का परिचय 90 के दशक में 'रूदाली' फिल्म में गाये उनके गीत 'दिल हूम हूम करे' के माध्यम से होता है। बॉलीवुड संस्कृति ने स्थानीय संगीत के लिए जगह कहां छोड़ी है?

असमिया फिल्म के चर्चित निर्देशक जानू बरुआ कहते हैं, "यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जीते जी संगीत के इस महान कलाकार की कला महज एक छोटे तबके तक ही सीमित रही।" वे कहते हैं कि यह असम के लोगों का सौभाग्य था कि भूपेन दा यहां पैदा हुए और उसकी संस्कृति को अपने संगीत में उतारा। साथ ही उनका कहना है कि 'देश के बाकी हिस्सों का यह दुर्भाग्य है कि संगीत के इस साधक की कला से वे वंचित हैं।'

बहरहाल, उस शाम जब उन्होंने 'गंगा आमार मां, पद्मा आमार मां' गाया, तब ऐसा लगा जैसे दो देशों की सीमा के बीच मानवता चीत्कार रही थी।

ऐसी ही चीत्कार हमें तब सुनाई पड़ती है, जब ऋत्विक घटक की फिल्में देखते हैं। कार्यक्रम के बाद हम काफी समय तक मौन रहे। हमारी आंखें भरी हुई थीं, पर मन हल्का था…

Arvind Das(अरविंद दास। देश के उभरते हुए सामाजिक चिंतक और यात्री। कई देशों की यात्राएं करने वाले अरविंद ने जेएनयू से प‍त्रकारिता पर भूमंडलीकरण के असर पर पीएचडी की है। IIMC से पत्रकारिता की पढ़ाई। लंदन-पेरिस घूमते रहते हैं। दिल्‍ली केंद्रीय ठिकाना। उनसे arvindkdas@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता 


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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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